सामाजिक असंतोष मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी
शिवाजी सरकार:
भारत चौराहे पर खड़ा है। देश विकास के रास्ते पर है, लेकिन स्वाभाविक तौर पर इसकी रफ्तार धीमी है। दूसरी ओर, सामाजिक असंतोष निरंतर बढ़ रहा है। देश में ट्रक मालिकों की हड़ताल और दमकल तक को आग के हवाले कर देने वाले मराठा प्रदर्शनकारियों के प्रदर्शनों को दरकिनार किया जा रहा है। हालांकि, मराठा आंदोलन की हुड़दंगी प्रकृति की वजह से यह आंदोलन लोगों की नजरों में आया। लेकिन ट्रक मालिकों द्वारा अपनी गाड़ियों को चुपचाप सड़कों से हटा लेने पर किसी का ध्यान नहीं गया। दोनों ही प्रदर्शनों के पीछे आर्थिक कारण थे। महाराष्ट्र के सबसे शक्तिशाली सामाजिक समूह के तौर पर ज्ञात मराठा सरकारी नौकरियों में 16 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर हंगामा कर रहे थे।
दरअसल, मराठा समुदाय का असंतोष बेबुनियाद भी नहीं है। निजी सेक्टर में नई नौकरियों के अवसर पैदा नहीं हो रहे हैं। जो कुछ नौकरियां निजी सेक्टर में उपलब्ध हैं भी, उनमें आधारभूत वेतन और मानवता के प्रति सम्मान का अभाव है। अंततः अकेली सरकार ही रोजगार देने वाली आदर्श एजेंसी के तौर पर बचती है।
ट्रक मालिकों के हड़ताल ने देश के विभिन्न हिस्सों में सामानों की आपूर्ति को बाधित किया। उनकी मांगें उचित हैं, क्योंकि उन्हें न्यूनतम लाभांश भी नहीं मिल पा रहा है। वे अपने कामकाज को लाभकारी बनाने के लिए डीजल पर केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले टैक्स को कम करने के अलावा कई दूसरी मांगें भी कर रहे थे।
ट्रक मालिक दोषपूर्ण और अपारदर्शी टोल टैक्स वसूली की व्यवस्था को खत्म किए जाने की मांग कर रहे थे। जो सड़क कनसेशनर का हित साधता है। ट्रक मालिकों के मुताबिक टोल गेट पर गाड़ियों के रुकने की वजह से नष्ट हुए समय और ईंधन को रुपये में बदला जाए तो करीब 1.5 ट्रिलियन रुपये का नुकसान हर साल होता है। टोल गेट पर स्वचालित टैग्स ने समस्या को सुलझाने में बहुत मदद नहीं की है।
बीमा प्रीमियम के ऊंचे दरों को लेकर भी ट्रक मालिक गुस्से में हैं। वे थर्ड पार्टी प्रीमियम और थर्ड पार्टी प्रीमियम पर जीएसटी में छूट चाहते हैं। इसके अलावा अप्रत्यक्ष करों में छूट या उससे मुक्ति, सभी प्रकार के ट्रकों और बसों के लिए राष्ट्रीय परमिट और डायरेक्ट पोर्ट डिलिवरी टेंडरिंग सिस्टम को भी खत्म करने की मांग कर रहे हैं। हालांकि, हफ्ते भर के बाद 27 जुलाई को हड़ताल खत्म कर दिया गया। लेकिन एक बार फिर सात अगस्त को ट्रकों समेत दूसरे वाहन भी हड़ताल पर चले गए।
बार–बार ट्रक हड़ताल
हाल ही में संपन्न हुए संसद के मॉनसून सत्र में लोकसभा में मोटर वाहन एक्ट-1988 के (संशोधन) बिल के विरोध में फिर देश भर में परिवहन हड़ताल हुई। इसमें ऑल ओडिशा ट्रांसपोर्ट वर्कर्स फेडरेशन भी शामिल हुआ। फेडरेशन के राज्य अध्यक्ष जनार्दन पति ने बताया कि यदि इस बिल में संशोधन लाया गया तो फिर गाड़ी मालिकों के साथ चालक भी प्रभावित होंगे। केवल बीमा कंपनियों को इसका लाभ मिलेगा। इसके प्रतिवाद में लाखों ऑटो, टैक्सी, बस, ट्रक एवं टैंकर चालक और मालिक भी हड़ताल में शामिल हुए।
भारत सड़क परिवहन महासंघ, सीआइटी, एचएमएस, एआइटीयूसी, आइएनटीयूसी, एलपीएप के संयुक्त आह्वान पर हड़ताल हुई। फेडरेशन ने आरोप लगाया कि मोटर वाहन एक्ट 1988 (संशोधन) बिल के जरिए केंद्र सरकार परिवहन शिल्प को पूरी तरह से कार्पोरेट एवं विदेशी कंपनी के हाथों सौंप दिया है। इस बिल के पास होने पर राज्य परिवहन संस्था खत्म हो जाएगी।
आरक्षण का रण
बहरहाल, अब मराठा, जाट, गुर्जर और दूसरे शक्तिशाली सामाजिक समूहों पर विचार करें तो स्पष्ट है कि इन समूहों ने 1989 के मंडल आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया था। ये खेती-किसानी करने वाले खेतिहर समुदाय हैं। उस वक्त वे संतुष्ट थे कि सरकारी सिस्टम उनका ध्यान रख रहा है। लेकिन, 30 साल के वैश्विक ‘मनमोहनॉमिक्स’ ने वैश्विक निवेशकों के लिए दरवाजे खोल दिए और इसी के साथ किसान के हालात बद से बदतर होते चले गए।
सरकार हालात से वाकिफ है, लेकिन इन सामाजिक समूहों को राहत देने वाली व्यवस्था बनाने का रास्ता तलाशने में असमर्थ है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाए जाने से उन्हें कोई खास लाभ नहीं मिला। उत्पादन को बढ़ाने की नीतियों से गेहूं, चीनी और दाल की मात्रा में प्रचुरता आई। क्या उन्हें ज्यादा उत्पादन के एवज में कम कमाई से संतुष्ट हो जाना चाहिए ? अब सरकार ने दाल के स्टॉक को भी बाजार में खोल देने का फैसला किया है।
जाहिर है, इससे कीमतों में गिरावट आएगी। चीनी भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है। किसानों को लाभकारी मूल्य नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में, सरकारी नौकरी करने वाले लोग उनकी ईर्ष्या का कारण बनते हैं। इसलिए अपने न्यूनतम जीवन स्तर को बनाए रखने की चिंता में अंततः वे आरक्षण की मांग की ओर मुखातिब होते हैं, क्योंकि खेती उनके लिए लाभदायक पेशा नहीं रह गया है। लोन देने वाली एजेंसियां भी उनके लिए ज्यादा मददगार साबित नहीं होती हैं। आखिर सरकार, विपक्ष, किसान और नीति नियंताओं को एक कारगार व्यवस्था विकसित करने के लिए एक साथ क्यों नहीं बैठना चाहिए?
ट्रक मालिकों के साथ भी कुछ वैसा ही मामला है। दैनंदिन जरूरत की चीजें ढोने वाले ट्रक देश की जीवन रेखा हैं। अगर उनके काम से उन्हें न्यूनतम आय भी नहीं होगी, तो वे काम क्यों करना चाहेंगे। एक ओर किसानों की दुर्दशा की वजह उदासीनता है, तो दूसरी ओर, ट्रक मालिकों पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिए जाने से उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। एक आम धारणा है कि ट्रकों का व्यवसाय एक लाभकारी व्यवसाय है, इसलिए ही, उनसे प्रत्यक्ष उगाहियों के साथ ही आरटीओ और कानून लागू कराने वाली विभिन्न एजेंसियों के द्वारा हजारों करोड़ रुपये की अप्रत्यक्ष उगाही की जाती है।
ऐसे में, ट्रक मालिकों की मांग बिल्कुल जायज और तार्किक है। बीमा सबसे बड़े व्यापार में तब्दील हो चुका है और बीमा कंपनियां सरकार पर हमेशा प्रीमियम बढ़ाने का दबाव बनाती रहती हैं। लेकिन बदले में कुछ करना नहीं चाहती हैं। अब तो यह भी साफ है कि किसानों को भी बीमा का अपेक्षाकृत लाभ नहीं मिल पाता, जबकि वे बीमा कंपनियों के लाभांश को कई गुणा बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं।
इन सबके साथ ही, अप्रत्यक्ष करों की बहुलता ने हालात को और भी गंभीर बना दिया है। प्रत्येक लीटर ईंधन पर दो रुपये के सड़क कर को अब पेट्रोल और हाई स्पीड डीजल पर 8 रुपये प्रति लीटर सड़क और आधारभूत संरचना टैक्स में बदल दिया गया है। 2018 के बजट में इस प्रस्ताव की घोषणा की गई थी. इससे सरकार को 1.13लाख करोड़ का फायदा होगा।
करीब हर 20 किलोमीटर पर टोल टैक्स वसूला जाता है, जिससे ट्रक मालिकों और उपभोक्ताओं पर आर्थिक बोझ पड़ने के साथ ही सड़क जाम होता है। साथ ही, ईँधन और समय की बर्बादी भी होती है। जनता पहले ही 1.13 लाख करोड़ सालाना की बड़ी राशि का भुगतान कर रही है. यह राशि साल 2017 तक 32,000 करोड़ रुपये थी। ऐसे में, फिर कनसेशनर को तैनात कर टोल वसूलने का क्या औचित्य है और यह किसके लिए वसूला जा रहा है ?
किसी भी संवेदनशील सरकार को तत्काल ही टोल टैक्स समाप्त करने का फैसला कर देना चाहिए। इससे जनता को न सिर्फ आर्थिक तौर पर निचोड़ा जा रहा है, बल्कि इससे समय की बर्बादी हो रही है। इसने एक प्रकार के माफिया को बढ़ावा दिया है। इससे कानून-व्यवस्था की समस्या भी खड़ी होती है। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण- एनएचएआई के आंकड़े के मुताबिक टोल से देश पर करीब 25 हजार करोड़ रुपये का भार पड़ रहा है। मुद्रास्फीति को बढ़ाने वाली इस बड़ी उगाही की इजाजत क्यों दी जा रही है ?
कब खत्म होगा टोल का झोल ?
सरकार को राजनीतिक और आर्थिक दोनों वजहों से टोल टैक्स को खत्म कर देना चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के खर्चे पारदर्शी नहीं होने का मामला भी ट्रक मालिकों ने उठाया है। इसका सीधा मतलब है कि टोल टैक्स देश और जनता पर बहुत भारी पड़ रहा है। देश का शायद ही कोई तबका है जिस पर टोल टैक्स का असर नहीं पड़ता हो। यह किसानों को चोट पहुंचाता है, जिनके उत्पाद ईँधन सेस और टोल के दोहरे टैक्स की मार झेलते हैं। परिणामतः एक ओर ये उत्पाद दोगुने महंगे हो जाते हैं तो दूसरी ओर किसानों और ट्रक मालिकों का मुनाफा भी प्रभावित होता है। टोल टैक्स उन उपभोक्ताओं पर भी असर डालता है जो इस गैरकानूनी टैक्स का बोझ ढोने को विवश हैं। इस न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों को कोई मदद मिलती है। उन्हें अनावश्यक तौर पर बड़ी संख्या में मौजूद टोल गेट पर शांति-व्यवस्था कायम रखने के लिए बड़ा आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है।
एनएचएआई ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि कनसेशनर द्वारा जो टैक्स वसूला जाता है उसके एक-तिहाई से ज्यादा उसे प्राप्त नहीं हो पाता है। इसका मतलब यह भी हुआ कि एनएचएआई को न तो टोल टैक्स और न ही कनशेसनर की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक हड़ताल से ट्रक मालिकों को 5000 करोड़ रुपये रोजाना का नुकसान हुआ। साथ ही, उत्पादक अपने उत्पादों को कम करने या अपनी उत्पादन ईकाई को बंद करके को मजबूर हुए। इसने जरूरी सामानों की आपूर्ति खासकर सब्जियों, फल और दूध से बने उत्पादों के सामानों की आपूर्ति को अस्त-व्यस्त कर दिया है. इससे किसानों पर बुरा असर पड़ा। कई एफएमसीजी ईकाइयों को भी बाधित बिजली आपूर्ति का सामना करना पड़ा। ऑनलाइन कंपनियों को भी बाधित आपूर्ति का सामना करना पड़ा।
समय आ गया है कि इस बड़ी उगाही की ओर गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया जाए। ईंधन पर सेस अपने आप में मुद्रास्फीति बढ़ाने वाला है। टोल और हाउस टैक्स सहित करीब सभी टैक्स पर जीएसटी जैसे टैक्स लगाना समझ के परे है। 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त आयकर, सड़कों के टोल टैक्स और कई दूसरे टैक्स से मुक्ति दिलाने का वादा किया गया था। जीएसटी, जिसमें केंद्रीय करों को सम्मिलित कर लिया गया है, को छोड़कर ज्यादातर टैक्स पहले की तरह ही मौजूद हैं। अंतर इतना ही आया है कि राज्यों ने उन करों के नाम बदल दिए हैं।
प्रति लीटर तेल पर 8 रुपये की सड़क चुंगी लगा दिए जाने के बाद टोल टैक्स से मुक्त सड़क यात्रा जनता का अधिकार है। आर्थिक तौर पर आरामदायक सड़क यात्रा किसानों, ट्रकों और अन्य लोगों को लाभ पहुंचाने वाला होगा। इसे जितना जल्दी लागू किया जाएगा, यह प्रगति और विकास को बढ़ावा देने वाला होगा- यही समय की मांग है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) में पत्रकारिता के प्रोफेसर रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर इनकी लेखनी खूब चलती है)