स्वामी विवेकानंद से प्रभावित आयरलैंड की 17 साल की मार्गरेट बन गई भगिनी निवेदिता
निखिल यादव:
भगिनी निवेदिता का जीवन त्याग, सेवा और समर्पण का जीवन है। आयरलैंड में जन्मी और इंग्लैंड के लंदन शहर में मात्र 17 वर्ष की उम्र में शिक्षिका बनने वाली, लंदन की बौद्धिक मंडली “सीसेमक्लब” में अपने लेखों और व्याख्यानों से स्वयं को प्रतिष्ठित करने वाली, इंग्लैंड के विम्बलडन शहर में अपना विद्यालय शुरू करने वाली ‘मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल’ अपना सब कुछ त्याग कर अपने गुरु स्वामी विवेकानंद के आह्वान पर भारत में महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ के क्षेत्र में काम करने आती है। 1899 में बंगाल में प्लेग महामारी फैली है तो सड़क पर उतर कर नालियां और कूड़ा साफ़ करती हैं। साथ ही जन साधारण को जागरूक भी करती हैं।
अंग्रेज़ों का भारतीयों पर अत्याचार देख कर स्वतंत्रता आंदोलन में भी कूद जाती हैं। अंग्रेजों से भारत की आज़ादी के लिए दो-दो हाथ भी करती हैं। लंदन से आई मार्गरेट नोबल के लिए भारत में काम करना आग में तपने से कम नहीं था, एक तरफ नई भाषा, गरम मौसम, जल-वायु परिवर्तन से पार पाना। दूसरी तरफ गोरी चमड़ी के लोगों के प्रति उस समय स्थानीय लोगों में जो डर या तिरस्कार का भाव था उसके बीच उनके साथ काम करना अत्यंत कठिन था। मार्गरेट नोबेल हर चुनौती को अवसर में परिवर्तित कर देती है और अपने आखिरी सांस तक भारत की सेवा में लगी रहती हैं।
11 सितम्बर, 1893 के ऐतिहासिक भाषण के बाद स्वामी विवेकानंद अमेरिका में घर-घर में प्रसिद्ध हो जाते हैं। उनके भाषण सुनने के लिए लोग बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित करना शुरू करते हैं। इसी श्रृंखला में उन्हें लंदन से भी निरंतर आमंत्रण आते रहते थे। नवंबर 1895 में स्वामीजी का लंदन में लेडी ईसाबेल मार्गसन के घर में व्याख्यान रखा जाता है। इसमें चुने हुए 15-16 लोग ही बुलाए जाते हैं। भारत के वाइसरॉय लार्ड रिपन की पत्नी लेडी हेनरीटा भी स्वामीजी को सुनने आती है। इसी दिन पहली बार स्वामीजी और मार्गरेट नोबेल की मुलाकात होती है। जिसका विस्तृत वर्णन हमें उन्हीं की लिखी पुस्तक ”द मास्टर ऐज़ आई सॉ हिम” में मिलता है। मार्गरेट स्वामीजी के दार्शनिक ज्ञान, व्यक्तित्व और धर्म को अनुभूति के तौर पर देखने वाली चर्चा से प्रभावित होती है।
मार्गरेट आने वाले दिनों में उनके अनेकों व्याख्यानों में शामिल होती है। निरंतर अपनी जिज्ञासाओं के कारण प्रश्न करती रहती हैं। वो स्वामीजी के विचारों से इतनी प्रभावित हुई थी कि एक पत्र में वह अपने मित्र को लिखती है – ”मानो यदि स्वामीजी उस समय लंदन में आते ही नहीं तो, मेरा जीवन निष्प्राण पुतले जैसा होता।”
स्वामी विवेकानंद मार्गरेट को भारत में आकर भारतीय स्त्रियों के लिए काम करने का आह्वान करते है। साथ ही साथ आने वाली सभी चुनौतियों से भी अवगत करवाते हैं। अल्मोड़ा से 29 जुलाई, 1897 को स्वामजी मार्गरेट नोबल को पत्र में लिखते हैं- ”भारत के कार्य में आपका भविष्य उज्जवल है। ऐसा मुझे विश्वास है। आवश्यकता है एक स्त्री की, पुरुष की नहीं। भारत की स्त्रियों के लिए कार्य करने वाली एक सिंह के सदॄश्य धैर्यवान स्त्री की। अपनी विद्या, मन की शुद्धता और केल्टिक वंश से होने के कारण इस कार्य के लिए जैसी स्त्री की आवश्यकता है संयोग से तुम वैसी ही हो।” स्वामीजी मार्गरेट को भारत के अत्यंत गरम मौसम से भी परिचित करवाते हैं। वो कहते हैं, हमारे यहां ठण्ड का मौसम तुम्हारे यहां गर्मी के मौसम की तरह होता है। तुम्हारी गोरी चमड़ी को देख कर या तो लोग तुमसे डरेंगे या तुम्हारा तिरस्कार करेंगे।
भारत में आगमन
इन सब चुनौतियों को स्वीकार करते हुए मार्गरेट नोबेल 28 जनवरी, 1898 को अपना परिवार, देश, नाम, यश छोड़कर भारत आती हैं। भारत आने के बाद 25मार्च ,1898 को स्वामी विवेकानंद उनको ब्रह्मचर्य की दीक्षा भी देते है और निवेदिता नाम भी। आपने नए नाम के अनुरूप भगिनी निवेदिता अपना पूरा जीवन भारतवासियों के लिए समर्पित कर देती हैं।
भारत के लिए योगदान
प्लेग में सेवा का कार्य
प्लेग के काम का विशद विवरण “द प्लेग” शीर्षक लेख में दिया गया है जो कि उनकी किताब” स्टडिस फ्राम ए ईस्टर्न होम” में दिया गया है। मार्च, 1899 में कलकत्ता में प्लेग फैल गया था। रामकृष्ण मिशन ने प्लेग से निवारण के लिए एक समिति बनाई। इसमें भगिनी निवेदिता को सचिव का दायित्व दिया गया था। उन्होंने वित्तीय सहायता के लिए अखबारों के माध्यम से आह्वान करना, प्लेग से लड़ने के लिए निवारक उपायों से युक्त मुद्रित हैंडबिलों को वितरित करना, युवाओं को जागरूक करने के लिए व्याख्यान देना ऐसे कई कार्य किए थे। इसमें ‘द प्लेग एंड स्टूडेंट्स ड्यूटी’ विषय पर क्लासिक थिएटर में छात्रों को दिया हुआ उनका भाषण बहुत महत्वपूर्ण है।
भगिनी निवेदिता लोगों की सेवा करने के लिए दिन रात मेहनत में लग जाती हैं। एक दिन जब उनको स्वयंसेवकों की कमी दिखी तो उन्होंने गलियों की सफाई स्वयं शुरू कर दी, वह एक-एक करके झुग्गियों में नालियां साफ़ करने लग गई थीं। भगिनी निवेदिता झोपड़ियों में रहने वाली बच्चियों की देखभाल के लिए उनके इलाके में ही पहुंच जाती थीं। खासकर उन बच्चियों के घर जिनके माता पिता की मृत्यु प्लेग से हो चुकी होती है।
स्त्री शिक्षा के लिए योगदान
भगिनी निवेदिता का भारत में आने के पीछे मुख्य उद्देश्य स्त्री शिक्षा और बालिका विद्यालयों का प्रारंभ करना था। उस समय गरीबी और गुलाम मानसिकता के कारण कोई अपनी बेटियों को विद्यालय नहीं भेजना चाहता था। निवेदिता व्याख्यानों के माध्यम से और घर-घर जाकर स्त्री शिक्षा की आवश्यकता को लेकर अनेक माता-पिताओं को जागरूक और आग्रह करती थी। 13 नवंबर, 1898 को पहले बालिका विद्यालय की शुरुआत होती है। मात्र 3 बालिकाओं से शुरू हुआ यह विद्यालय जल्द ही स्त्री शिक्षा का केंद्र बन जाता है। शिक्षा के साथ-साथ गरीब बालिकाओं के लिए वस्त्र और आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था भगिनी निवेदिता करती हैं। जल्द ही गृहिणियों और विधवाओं को भी शिक्षा देना शुरू कर देती हैं। इसके कारण वह स्वयं भी भारतीय समाज को निकट से महसूस कर पाती हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी
भगिनी निवेदिता ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष भारत की स्वाधीनता के लिए ही समर्पित कर दिए। सितंबर 1902 से उन्होंने प्रवास शुरू किया और अंग्रेजी शासन की अनैतिक गतिविधियों के खिलाफ सीधी आवाज़ उठाई। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से योगी अरविन्द, शिल्पकार अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, चित्रकार नंदलाल बोस, दक्षिण भारत के कवि सुब्रमणियम भारती को अन्य लोगों से जोड़ने का प्रयास किया। इन सबके जुड़ने से स्वतंत्रता आंदोलन में युवाओं की भागीदारी बढ़ी। अंग्रेजी शासन पर भी दबाव पड़ा। 1905 में लार्ड कर्जन जब बंगाल का विभाजन करते हैं तो सम्पूर्ण बंगाल में स्वदेशी आंदोलन शुरू हो जाता है। इसमें भगिनी निवेदिता सक्रिय भूमिका निभाती है। वह अंग्रेज़ों के खिलाफ जनमत तैयार करती हैं। स्वास्थ्य गिरने से 13 अक्टूबर 1911 को 44 साल की उम्र में भगिनी निवेदिता दार्जीलिंग में अपने आखरी सांस लेती है। अपने नाम निवेदिता के अनुरूप ही उन्होंने अपना पूरा जीवन भारतीयों की सेवा में समर्पित कर दिया।
(लेखक निखिल यादव विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं)