राष्ट्रीय बालिका दिवस पर आज बताने जा रहे खनिज संपदा से संपन्न लेकिन देश के पिछड़े राज्यों में शामिल झारखंड की एक जुनूनी बच्ची की कहानी। मात्र 14 साल की उम्र में बाल विवाह के विरुद्ध इस बच्ची की लड़ाई किसी गाथा से कम नहीं है।
झारखंड के खूंटी की अभिलाषा (बदला हुआ नाम) की कहानी है जीवट, जिजीविषा और संघर्ष की। अभिलाषा एक ऐसे घर में जन्मी जहां बच्चों के पैदा होने पर सोहर नहीं गाए जाते बल्कि मां-बाप की चिंता यह होती है कि उसका पेट भरने के इंतजाम कैसे करें। खेलना-कूदना, पढ़ाई लिखाई या दादी की गोद में सोकर परियों की कहानी सुनना अभिलाषा के भाग्य में नहीं था।
अभिलाषा एक मजदूर के घर जन्मी। माता-पिता गोरखपुर में ईंट भट्ठे पर काम करते और बारिश के मौसम में भट्ठा बंद होने पर गांव आकर खेती-बाड़ी करते। अभिलाषा भी 5-6 साल की उम्र से भट्ठे पर माता-पिता के साथ काम करने लगी।
अभिलाषा के सपने इसी ईंट भट्टे की आग में तपकर पैदा हुए। लेकिन ईंट भट्ठे में मजदूरी को उसने नियति मानकर स्वीकार नहीं किया। उसमें जीवट था, जिजीविषा थी और कठिनाइयों से लड़ने का माद्दा भी था। वह फुटबाल की जुनूनी थी और पुलिस अफसर बनकर मजलूमों की सेवा करना चाहती थी। लेकिन अभी उसे कई अग्निपरीक्षाओं से गुजरना था।
अभिलाषा एक मासूम सी बच्ची ही थी जब बारिश के मौसम में ईंट भट्ठा बंद होने के बाद उसके मां-बाबा खेती-बाड़ी करने के लिए झारखंड के अपने गांव लौट आए। उसके पिता एक दिन शराब पीकर चबूतरे से नाले में गिर गए। बाद में उन्हें टाइफाइड हो गया, ब्लड शुगर डाउन होता गया। कई महीने तक रिम्स में भर्ती रहने के बावजूद उन्होंने दम तोड़ दिया।
पिता के गुजरने के चंद हफ्तों बाद ही अभिलाषा की मां ने दोबारा शादी कर ली और बच्चों को छोड़कर चली गई। अभिलाषा बताती है कि उसकी दो बहनों और भाई की शादी माता-पिता पहले ही कर चुके थे। इसके बाद भाई और भाभी ने मिलकर तीसरी बहन की भी शादी तय कर दी। जबकि चौथी बहन ने लव मैरिज कर ली।
अभिलाषा अपने दोस्तों की तरह ही पढ़ने-लिखना चाहती थी। लेकिन उसकी भाभी ने उसे पढ़ाने से साफ मना कर दिया। अभिलाषा की भाभी भी गांव की कई अन्य लड़कियों की तरह उसकी भी बचपन में ही शादी करवाने पर अड़ी हुई थी। उधर, अभिलाषा जीवन में आगे बढ़ने के सपने बुन रही थी। भाभी की आपत्तियों के बावजूद अभिलाषा ने अपने भाई को गांव के स्कूल में दाखिला लेने के लिए राजी कर लिया।
हालांकि, वो दो दिन ही स्कूल गई होगी कि भाभी ने अभिलाषा को जबरन बकरी चराने भेज दिया। लेकिन अभिलाषा किसी और मिट्टी की बनी थी। वह हार मानने वालों में नहीं थी। वह बेधड़क रांची के नामकुम ब्लॉक के भुसूर में एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस (आशा) नामक एनजीओ में चली गई, जहां उसे तुरंत आश्रय मिल गया।
नजदीक के एक स्कूल में उसका दाखिला करा दिया गया। लेकिन दो महीने बाद उसे अपने भईया-भाभी की याद आने लगी। लेकिन भईया-भाभी ने अभिलाषा को गांव नहीं लौटने दिया और गुपचुप तरीके से उसकी शादी की तैयारी करने लगे। यही नहीं, अभिलाषा को शादी करके दूसरे राज्य में भेजने की भी चर्चा होने लगी।
अभिलाषा को पता चल गया कि उसकी दो-तीन दिन में शादी कर दी जाएगी। उस समय अभिलाषा की उम्र करीब 14 वर्ष रही होगी। शादी करने की भईया-भाभी की योजना पर पानी फेरने के लिए छोटी सी बच्ची ने एक योजना तैयार की। उसने अपने दोस्त से पैसे उधार लिए और सैलून में जाकर विवाह के विरोध में अपने बाल बॉयकट कटा लिए ताकि उसे पहचाना न जा सके।
इसके बाद उसी दिन वह रांची स्थित एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेरनेस (आशा) केंद्र पहुंच गई। आशा देशभर के 416 जिलों में बाल विवाह के खिलाफ अभियान चला रहे 250 गैरसरकारी संगठनों के नेटवर्क जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन का अहम सहयोगी है।
संघर्षों की आंच में तपी अभिलाषा की सोच बिलकुल स्पष्ट है। वह कहती है, “हमें पढ़ाई और खेल चाहिए, हम बच्चियों को बराबरी के अधिकार चाहिए और बाल विवाह हमसे ये सब कुछ छीन लेता है। इसलिए हमें इस अपराध का अंत चाहिए।”
अभिलाषा तब से ही आशा केंद्र में ही रहकर पढ़ाई कर रही है। फिलहाल वह 7वीं में पढ़ रही है और पुलिस बनकर मुसीबत में फंसे बच्चों की मदद करना चाहती है। पुलिस में भर्ती होने के लिए वह रोजाना तीन से चार किलोमीटर दौड़ लगाती है। फुटबॉल उसका जुनून है, और वह हर शाम साथी खिलाड़ियों के साथ बिताती है। फुटबॉल की तरह ही वह अपने सपने को गोल (अंजाम) तक पहुंचाना चाहती है।
लेकिन अभिलाषा सिर्फ खेल और पढ़ाई तक ही सीमित नहीं है। वह ‘आशा’ की सक्रिय सदस्य के तौर पर बाल विवाह के खिलाफ बाल विवाह मुक्त भारत अभियान में भी बढ-चढ़ कर शामिल है।
(लेखिका संध्या न सिर्फ सामाजिक मुद्दों पर लेखनी घिसती हैं, बल्कि ग्राउंड पर रहकर बच्चों और महिलाओं के हित में भी बहुत कार्य करती हैं।)