बेहोशी के चिकित्सकों को हॉस्पिटल में ऑपरेशन टेबल पर मरीज का मन टटोलने की महारत हासिल होती है। ऑपरेशन के पहले उनका हौंसला बनाए रखने और बढ़ाने की अहम जिम्मेदारी भी निभाते हैं बेहोशी के डॉक्टर। दिल्ली के मशहूर गंगाराम अस्पताल के चिकित्सक डॉ. भुवनचंद्र पाण्डेय का मरीजों का मन टटोलने के बाद शोधपरक लेकिन आंखे खोल देने वाला लेख।
मैं पिछले दो दशकों से मरीजों को बेहोशी देने का काम कर रहा हूं। शल्य चिकित्सा की मेज पर, बेहोशी देने के दौरान उनके तनाव को कम करने के लिए उनसे बात करता हूं। ऐसे समय मरीजों से प्रश्न पूछना सामान्य बात है। ऑपरेशन की टेबल पर पहुंचे अधिकतर मरीजों के अंदर एक अनजान डर, असुरक्षा की भावना बैठी होती है। मैंने यह पाया है कि जिनमें सुरक्षा, विश्वास और दृढ़ता की भावना ज्यादा होती है, आश्चर्यजनक रूप से ऐसे अधिकतर मरीज ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं। इसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि गांव में ऐसा क्या है कि ग्रामीण मरीजों में ज्यादा विश्वास और ठहराव है जो कि आमतौर पर शहरी रोगियों में नहीं होता। इस प्रश्न के उत्तर खोजना मैंने शुरू किया। ज्यादा से ज्यादा मरीजों से बात, समाज और विद्वानों की पुस्तकों के अध्ययन से निकले निष्कर्ष आपसे साझा कर रहा हूं।
भारतीय जनगणना (2011) के अनुसार आज भी 68 प्रतिशत लोग गांव में ही रहते हैं। ग्रामीण जीवन हमेशा प्रकृति के साथ चलता है। स्वच्छ वातावरण, समय पर सोना-उठना, भोर में घूमने निकलना, समयानुसार ताजा व शुद्ध भोजन खाने से रोग निरोधक क्षमता में वृद्धि होती है और रोग कम होते हैं। साथ ही साथ सद्गुण पैदा होते हैं। क्रिसेला स्टेन और अलब्रटिनो डामासीनो (द इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट, द वर्ल्ड बैंक, 2006, अध्याय -18) ने साफ-साफ लिखा है कि अप्राकृतिक रहन-सहन (लाइफ स्टाइल), अस्वास्थ्यकर खान-पान (फास्ट फूड) और कसरत न करने से तरह तरह-तरह की बीमारियां (उच्च रक्त चाप, वसा की अधिकता, मधुमेह व मोटापा) हो जाती हैं। यानी गांव की जीवन शैली बीमारियों से बचाने वाली है।
ग्रामीण जीवन में मन की मजबूती की एक वजह संयुक्त परिवार है। प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की धुरी का आधार संयुक्त परिवार रहे हैं। मशहूर मनोचिकित्सक डाक्टर अजीत अवस्थी (इंडियन जर्नल ऑफ सायकैट्री, 2010) के अनुसार भारत में संयुक्त परिवार में हर व्यक्ति की देखभाल होती है। सहारा दिया जाता है। इससे एंक्जाइटी, डर, बेचैनी, चिंता व नकारात्मक विचार नहीं पनपने पाते। शहर और छोटे परिवार में मानसिक अवसाद व निराशा के ज्यादा मरीज हैं। डॉ चन्द्रशेखर के अनुसार (रिसर्च ऑन फैमिलीज विद प्राब्लमस इन इंडिया: इश्यूज एंड इंपलीकेशन्स, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, 1991) शहर से दूर के इलाकों में पारिवारिक सहयोग की वजह से मानसिक रोगियों को चिकित्सालय की जरूरत कम पड़ती है।
ग्रामीण मरीजों में असुरक्षा की भावना ना होने की एक वजह मुझे उनकी सामाजिकता में मिली। ग्राम्य जीवन में लोग सामाजिक हैं। छोटे-बड़े सभी पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। सुख-दुख बांटते हैं। विकट परिस्थिति, दैवीय आपदा की स्थिति में आपसी सहयोग से काम करते हैं। ग्रामीण जीवन में सरल स्वभाव होने का एक कारण यह भी है कि लोग जैसे हैं वैसे ही रहते हैं। मतलब वह सादा अन्न खाते हैं। साधारण ही दिखते हैं। दिखने-दिखाने की होड़ में नहीं पड़े रहते। यही कारण है कि वे बिना मुखौटों के जीते हैं। एक दूसरे के ऊपर विश्वास करते हैं। भगवान के ऊपर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं। ईश्वर पर अखंड विश्वास के साथ जीते हैं। सादगीपूर्ण, बनावट रहित, संतोषी और धर्म-सम्मत मार्ग पर चलने वाला आत्मीय जीवन मन स्थिर होता है। जीवन-धारा आनंदित होती है। समाज के लिए कल्याणकारी काम करते हैं। जीवन पर्यंत एक दूसरे के प्रति संवेदनशील रहते हैं। इससे उनमें असुरक्षा की भावना नहीं पनपने पाती।
गांव में मानव ही नहीं, जीव-जंतुओं का भी ख्याल रखा जाता है खाने की थाली से कुछ भोजन चिड़ियों के लिए और अंत में श्वान के लिए भी निकाला जाता है। पुराने जमाने के घरों में तो छत के नीचे कोटर बनाए जाते थे, जिसमें पक्षी अपना घर बना कर आराम से रह सके। ऐसी विराट सोच केवल और केवल तभी आ सकती है जब आदमी खुद में इतना समृद्ध और समर्थवान हो कि वह दूसरों को कुछ दे सकें। जब इंसान की सोच इतनी विराट होती है तो उसके अंदर निराशा, असुरक्षा की भावना नहीं पनपने पाती।
बड़े शहरों में चकाचौंध की जिंदगी जीने वालों में अंदर ही अंदर असुरक्षा की भावना रहती है। इसे छिपाने के लिए वह दिखावे की अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं। अपना पूरा जीवन दिखावटी व महंगे सामान खरीद लेने की इच्छा में ही बिता देते हैं। लोग ज्यादा आमदनी ना होने पर भी अपने आप को बड़ा दिखाते हैं। पद, पैसा और प्रतिष्ठा जैसी निर्जीव चीजों को जीवन देते हैं। उसी को अपना सब कुछ मान लेते हैं। इन दिखावटी चीजों की वजह से भिन्न-भिन्न प्रकार के मुखौटे पहनते हैं। सबके सामने झूठी शान दिखाकर अपने को प्रसन्न दिखाने की कोशिश करते हैं। पर दिमाग में बैठा तनाव, दीमक की तरह अंदर से खोखला कर देता है। इससे वे धीरे-धीरे और भी एकाकी हो जाते हैं। सहनशक्ति कम हो जाती है। मानसिक अशांति बढ़ जाती है। लोग टूट जाते है।
फिर उसे प्रकृति की याद आती है। वह गांव या किसी दूरदराज क्षेत्र में जाकर शांति से कुछ पल बिताना चाहता है उसमें थोड़ी-बहुत शांति तो मिल पाती है लेकिन मन में बैठा अवसाद नहीं जा पाता। जो लोग लगातार गांव या अपने मूल जड़ों से जुड़े रहते हैं और आना-जाना बनाए रखते हैं। बच्चों को भी ले जाते हैं। वह बड़े लोगों के विचारों को सुनकर व अलग-अलग तरह की बातें करके बहुत सी परेशानियों का हल निकाल लेते हैं। जो लोग दूरस्थ स्थानों पर रहते हैं और कम जा पाते, उनके मन के कोने में जाने की इच्छा प्रबल होती है। अपनी सामर्थ्य और सहूलियत के अनुसार उन्हें गांव जाते रहना चाहिए।
बच्चों को बचपन से गांव या अपने मूल स्थान की आदत लगानी, जिससे कि वह जगह पर केवल घूमने ना जाए, बल्कि उनका भावनात्मक लगाव बन जाए, ग्रामीण क्षेत्र उनके लिए कोई अनजान ना हो और अभ्यस्त होकर ठीक से रह सके।
ध्यान रखिए ग्रामीण परिवेश आर्थिक रूप से समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से संपन्न होने के साथ ही साथ हमें और पूरे देश को मजबूती प्रदान करता है। निसंदेह यह वही स्थान हैं, जहां वेदों पुराणों और न जाने कितने ग्रंथों की रचना हुई और मानवता को अनूठा उपहार मिला। इस ज्ञान की बदौलत हम विकट से विकट परिस्थितियों से भी निकलने में सक्षम हो पाते हैं। अपने मरीजों से बातचीत, अध्ययन और अनुभवों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि शहर में रहने पर भी लगातार ग्राम और ग्रामवासियों से संपर्क में रखना चाहिए। इससे सहनशीलता, धैर्य, दया, प्रकृति से प्रेम और उच्च कोटि की सांस्कृतिक विरासत को दैनिक जीवन में उतार सकेंगे। फिर मेरे जैसे चिकित्सक का कार्य भी ऑपरेशन टेबल पर आसान होगा।