खुद 9वीं पास लेकिन गांव में बनाया ऐसा स्कूल जहां के बच्चों का नवोदय विद्यालय में होता है चयन

Udayveer Singh

खुद दसवीं की पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी। घर की माली हालत ऐसी कि पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने यूपी के बुलंदशहर से सुदूर दक्षिण बैंगलोर पहुंच गए। जिंदगी के संघर्षों की आग में तपकर सफलता, पैसा और रुतबा मिला तो अपनी मिट्टी अपना गांव नहीं भूले। लौटकर वहां शिक्षा की एक लौ जला दी है। जो कई घरों में ज्ञान की रोशनी बिखेर रही है। पढ़िए हिमांशु कुमार की रिपोर्ट।

 

यहां हम आपको बता रहे हैं कि बुलंदशहर जिले के एक गांव मांगलौर के उदयवीर सिंह की कहानी। उनका परिवार गांव में रहता था। पिता अकेले कमाने वाले थे। घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। उदयवीर की पढ़ाई में रुचि थी। लेकिन आर्थिक अभाव ने उनसे पढ़ने का मौका छीन लिया। हालात ऐसे बने कि 10वीं की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर कमाने निकल पड़े।

 

 

बुलंदशहर के गांव से पहली बार निकले तो 2100 किलोमीटर दूर बैंगलोर शहर ठिकाना बना। ये सन 1981 की बात है। उदयवीर किसी परिचित के माध्यम से बैंगलोर पहुंचे और छोटी-मोटी नौकरी करने लगे। कुछ साल बैंगलोर में बिताने के बाद दिल्ली आए और यहां नौकरी शुरू की। इस बीच रियल इस्टेट सेक्टर को नजदीक से देखने का मौका लगा। एक रियल इस्टेट कंपनी के साथ काम करते हुए इस फील्ड की बारीकियां समझी। फिर दो तीन ग्रुप के साथ सेल्स में काम करने का मौका लगा। अब तक इस फील्ड की बारीकियों में पूरी तरह परिचित हो गए थे।

 

उदयवीर सिंह ने खूब जमकर रियल इस्सेट सेक्टर में काम किया। ये यही वक्त था जब एनसीआर बस और फैल रहा था। गाजियाबाद, गुरुग्राम और ग्रेटर नोएडा में जमकर काम किया। मेहनत का नतीजा भी मिला। इस फील्ड ने उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी बना दी। आर्थिक मजबूती मिली तो तो कंस्ट्रक्शन के हाथ आजमया। मेहनत और ईमानदारी से यहां भी उन्हें खूब कामयाबी मिली। सफलता मिली, पैसा आया तो उदयवीर सिंह ने गांव को कुछ वापस लौटाने का निर्णय लिया।

 

 

लेकिन अभी ये तय नहीं हुआ था कि आखिर अपने गांव और गांव के लोगों के लिए क्या करें। बहुत सोच विचार के बाद उन्होंने गांव के बच्चों के लिए कुछ करने का निर्णय लिया। उनका ध्यान गांव के प्राइमरी स्कूल की तरफ गया। स्कूल की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। पढ़ाई का कोई माहौल नहीं था। जब पढ़ाई की नींव पड़ने की शुरुआत होती है। वही व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त थी। तो उन्होंने गांव में पांचवीं तक का स्कूल खोलने का फैसला लिया। अब उनके परिवार में सब गांव से निकल चुके थे तो गांव के घर खाली पड़ा था। आर्थिक स्थिति अच्छी होने पर उन्होंने एक मंजिला घर बनवा दिया था। अब ये घर स्कूल बन गया।

 

तीन चार कमरों में स्कूल की शुरुआत तो हो गई। गांव में ऐलान भी हो गया कि स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी। लेकिन स्कूल चलाना इतना आसान नहीं था। शुरू में लोगों ने उदयवीर सिंह के इस नेक प्रयास पर सवाल उठाए। कई लोगों ने सीधे उन्हीं से पूछ लिया आखिर गांव में स्कूल क्यों खोल रहे हैं। स्कूल खोलने का क्या मकसद है। कुछ लोगों ने दबी जुबान में ये भी कहा कि जरूर इनका कोई लालच है। ऐसे विचारों और सवालों ने उनके मन को और दृढ़ कर दिया।

 

 

गांव के बचपन के साथियों, करीबी पड़ोसियों और परिजनों को समझाया कि वो गांव के बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं। शुरू में बमुश्किल 20 बच्चे जुटे। गांव के रिटायर्ड टीचर और पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक पढ़ाने के लिए तैयार हुए। जब पढ़ाई शुरू हुई और बच्चों में सुधार हुआ तो दूसरे मां-बाप भी प्रेरित हुए। अब इस स्कूल में 200 बच्चे हैं। स्कूल एक मंजिल से दो मंजिला हो चुका है। आठ कमरों के इस स्कूल में आठ टीचर हैं। इसके अलावा अन्य स्टॉफ है।

 

बच्चों में स्वाभिमान की भावना बनी रहे। उनमें किसी तरह की हीनता की भावना ना आए। इसके लिए 10 से 15 रुपये फीस रखी गई है। जो बच्चे समक्ष हैं, वे किताब और ड्रेस खुद खरीदते हैं। गरीब बच्चों के लिए पुस्तक और ड्रेस खुद उदयवीर सिंह मुहैया कराते हैं। बात स्कूल के पढ़ाई के स्तर की करें तो हर साल एक या दो बच्चे नवोदय विद्यालय में चयनित होते हैं। इस स्कूल का सारा खर्च उदयवीर सिंह खुद उठाते हैं। इसके लिए किसी से कोई चंदा नहीं लेते।

 

उदयवीर सिंह ने पिता के नाम पर स्कूल का नाम “रामदास मेमोरियल पब्लिक स्कूल” रखा है। ये स्कूल उस पिता को समर्पित है जिसके मन में कसक रही कि मैं अभाव की वजह से अपने बच्चों को बहुत नहीं पढ़ा पाया।