महाशिवरात्रि पर विशेष : हिंदू धर्म को मत-मतांतर की संकीर्णता से दूर रखना जरूरी

LORD SHIVA

महाशिवरात्रि पर द्वारका शारदापीठ जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामीश्री सदानंद सरस्वती जी का विशेष मत

 

 

विश्व में भारत ही एकमात्र धर्मभूमि है। धर्मग्लानि को दूर करने ईश्वर भारत में ही अवतार लेते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि धर्म भारत में ही है। जहां धर्म होगा वहीं तो ग्लानि भी होगी और अभ्युत्थान भी होगा। विश्व में जो धर्म नाम से कहे जा रहे हैं, वस्तुतः वे कालविशेष में व्यक्तिविशेष द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय या पार्टीमात्र ही हैं। भारत में भी जब धर्म अनेक मत मतान्तरों में विभक्त होकर संकीर्णता प्राप्त कर स्वयं को ही धर्म नाम से ख्यापित करने लगते हैं, तब ईश्वर अवतार धारण कर इस संकीर्णता को दूर कर अभ्युदय निःश्रेयसकारी धर्म की शुद्धि करते हैं।

भारतभूमि में शिव आराधना अत्यन्त प्राचीनकाल से होती आ रही है। आदि शङ्कराचार्य जब कश्मीर की यात्रा पर गये थे उस समय वह शिवआराधना का प्रधान केन्द्र हुआ करता था।

आदि शङ्कराचार्य जी ने बहत्तर मतों का खण्डन कर अद्वैतमत का स्थापन किया। बहत्तर मतों में एक शैव सम्प्रदाय भी था, जिसका खण्डन कर आदिगुरु ने शैव सम्प्रदाय का विलय भी अद्वैतमत के अन्तर्गत किया। भारत में आज भी विभिन्न शैव सम्प्रदाय विद्यमान हैं जो आगम से सञ्चालित होते हैं। शैवागम के अनेक ग्रन्थ कश्मीर, दक्षिण भारत में मिलते हैं।

 

आज दुर्भाग्यवश दक्षिण भारत के लिङ्गायत शैव स्वयं को हिन्दू मान्यता से विलग कर अल्पसंख्यक हो गये हैं। यह हिन्दूधर्म को कमजोर करने वाला कार्य हुआ है। अगर इसी तरह विभिन्न सम्प्रदाय अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाने लगेंगे तो आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व वाली परिस्थिति पुनः निर्मित हो जायेगी इसलिए यह चिन्ताजनक है। शैव-वैष्णव भेद आज भी विद्यमान है।

 

गोस्वामी तुलसीदास जी के ग्रन्थ रामचरितमानस के कारण उत्तरभारत में धर्म का संतुलन बना हुआ है। रामचरितमानस में उन्होंने श्रीराम के मुख कहलवाया है –

औरउ एक गुपुत मत सबहिं कहउ करजोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावई मोरि ।।

लेकिन चिंता की बात यह है कि यह वैष्णववाद आज दक्षिण भारत में जोर पकड़ रहा है। शैव दृष्टिकोण से शंकराचार्य परम्परा को देखें तो जिस प्रकार मध्व सम्प्रदाय ने शंकराचार्य के प्रति विषवमन किया, वह हृदय की संकीर्णता तथा आपराधिक कृत्य है। शंकराचार्य न केवल शैव थे, बल्कि पंचदेवों के उपासक भी थे। उन्होंने शिव, विष्णु, गणेश, देवी और सूर्य की पूजा को समान रूप से बढ़ावा दिया।

वेदों में रुदाष्टाध्यायी के लवण्य अध्याय में भगवान शिव की कण-कण में व्याप्त प्रकृति का वर्णन किया गया है तथा कण-कण में उनकी व्यापकता का गुणगान किया गया है।

आज उपासना के महापर्व महाशिवरात्रि में अधिकांश भारतीय वेदों में वर्णित भगवान शिव की आराधना से निःश्रेयस एवं समृद्धि की प्राप्ति करते हैं, यह आदि शंकराचार्य के पंचदेवों की आराधना का ही प्रचार है। शिवरात्रि के इस पावन अवसर पर हम भगवान चंद्रमौलीश्वर से भारत की समृद्धि की कामना करते हैं।