मोबाइल युग में पुस्तकों के प्रति लोगों की ललक, प्रेम और तड़प अभी भी कम नहीं हुआ है। दिल्ली पुस्तक मेले में पहुंचकर ही इसे बहुत ही आसानी से समझा जा सकता है। दिल्ली के मशहूर गंगाराम अस्पताल में एनीस्थिसिया डिपार्टमेंट में सीनियर कंसल्टेंट डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय की बदलता इंडिया के पाठकों के लिए मेले से आंखों देखी।
पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम्। कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।
विद्या यदि पुस्तकों में ही रहे और धन यदि दूसरों के हाथ में रहे, तो कार्यकाल उपस्थित होने पर वह विद्या भी विद्या नहीं है और वह धन भी धन नहीं है। अर्थात ज्ञान का स्वयं को होना आवश्यक है, पुस्तक में उपलब्ध ज्ञान समय पर काम नहीं आता; इसी प्रकार जो धन अपने पास है, अवसर आने पर वही काम आता है।
भारत में ज्ञान के प्रति झुकाव व कुछ नया सीखने की तीव्र उत्कंठा ना जाने कितने काल खंड से है, यह संभवतः स्वयं महाकाल ही जानते होंगे। हम भारतीय लोग ज्ञान को सर्वोपरि मानते हैं, शायद इसलिए ही अंधेरे से उजाले की ओर राह दिखाने वाले गुरु को ही सबसे ऊंचा माना जाता है। पिछले कुछ दशकों से ऐसा माना जाने लगा था कि बच्चों का रुझान पुस्तकों के प्रति कम होने लगा है।
पुस्तक मेला में सभी आयु वर्ग के हजारों लोग बड़े-बड़े कक्षों में सैकड़ों पुस्तक भंडारों पर उत्सुकतापूर्वक अपनी पसंद की पुस्तक खोजने में व्यस्त थे। यह देखकर मेरा यह मिथक टूट गया कि सभी का झुकाव ज्ञानदायी पुस्तकों से दूर हो गया है।
हर वर्ग के लिए कुछ रुचिकर व विविध प्रकार की नवीनता लिए हुए कुछ ना कुछ तो था ही। बच्चों से संबधित कक्ष में नये विचारों को व्यवहार में लाकर कई सारे प्रयोग बच्चों के मन को उत्साह से भर कर एक नया प्रभाव डाल रहे थे। कुछ ऐसे खेल भी थे जो बरबस ही मन मोह लेते थे। मन करता कि मैं भी बच्चा बन जाऊं, लेकिन ज्यादा चलने पर होने वाली थकान यह बता देती कि अब आयु अपना असर दिखाने लगी है।
एक स्थान पर भीड़ देखकर मै ठिठक गया। देखा तो ओलम्पयियन भारतीय पैराएथलीट ‘दीपा मलिक’ अपनी पुस्तक के साथ आसन पर थी। उनके सामने पाठकों के भीड़ थी। बहुत से लोग प्रश्न पूछ रहे थे। दीपा मलिक ने पैरा ओलंपिक खेलों में भारत को पदक दिला कर हमारा मान विश्व पटल पर बढ़ाया है। मुझे बड़ा गर्व हुआ कि ऐसे व्यक्तित्व को इतने पास से देख पाने का सौभाग्य मिल रहा है। कुछ आगे बढ़ा तो भारी संख्या में लोग प्रख्यात सांसद ‘शशि थरूर’ का इंटरव्यू सुन रहे थे।
एक अद्भुत अनुभूति व लोगों के उत्साह से मैं इस पावन पुस्तक महाकुम्भ में बहुत प्रसन्न था। इधर-उधर अनेक अस्थायी पुस्तक की दुकानों में अपनी मन-पसंद पुस्तकों व कुछ अलग-अलग विषय की पुस्तकों को खोजता रहा और उसी में लोप होता रहा।
कहीं कोई वार्तालाप चल रहा था तो कहीं कोई किसी विषय पर व्याख्यान हो रहा था। आंखों के सामने कुछ वर्ष पूर्व संपन्न हरिद्वार अर्ध-कुम्भ का दृश्य तैरने लगा। वहां पर छोटी छोटी कुटियों के सामने हवन की अग्नि प्रज्वलित थी। शिष्य नीचे बैठकर प्रश्न पूछ रहे थे और आसन पर विराजे उनके गुरु एक-एक करके उनकी सभी शंकाओं का धैर्य पूर्वक समाधान कर रहे थे। उससे पहले ऐसा मैंने केवल टेलीविज़न सीरियल में देखा था। प्रत्यक्ष में प्रथम अनुभव था, मैं अभीभूत था।
पुस्तक मेले में बहुत सी पुस्तकें पसंद आयी। इनमें से कुछ तो एकदम नये विचारों को लेकर थीं। साहित्य में कुछ लोगों की विचारधारा हमारे सम-सामयिक विषयों पर थी। एक पुस्तक को मेरी पत्नी ने पसंद किया तो एक व्यक्ति ने कहा कि ये मेरी है। इस पर मेरी भार्या ने कहा यह आप ले लीजिए, हम दूसरी ले लेंगे। फिर उन सज्जन ने कहा कि इस पुस्तक का लेखक मैं हूं। इस पर हम दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। साथ ही हर्ष भी। उनसे कुछ बातों पर विमर्श करके हम विदा हुए। ऐसे बिरले लोगों से शायद ऐसी ही किसी जगह मुलाक़ात हो जाती है और एक अनूठा अहसास कराती है।
सहसा ही मुझे पिछले पुस्तक मेले की याद हो आयी। इसी प्रकार एक पुस्तक के पसंद आने पर मैंने उस पुस्तक के दाम देने चाहे तो काउंटर के पास उपस्थित लेखिका ने अपने हस्ताक्षर करके पुस्तक मुझे भेंट कर दी। पुस्तक मेले में कई लेखक मिले। इनमें एक बात समान रूप से विद्यमान थी। यह थी वाणी में मिठास, चिंतन की गंभीरता और जन मानस को ज्ञान व दिशा देने का गुण, इन सभी से बहुत कुछ सीखने को भी को मिला।
विभिन्न महाजनों के अनुभवों व ज्ञान से भरी पुस्तकें केवल पढ़कर याद करने के लिए नहीं, अपितु व्यवहार में लाने के लिए होती हैं।
एक बार जब आदि शंकराचार्य से काशी में किसी व्यक्ति ने पूछा कि मुझे सारे वेद पुराण कंठस्थ हैं और अब कुछ बचा ही नहीं तो आगे क्या करूं? उन्होंने कहा ‘क्या आप उस ज्ञान को व्यवहार में ला पाये है?’ जब उसने ‘ना’ कहा, तो आदि शंकराचार्य ने कहा, अगर तुमने इस ज्ञान को जीवन में नहीं उतारा है तो वह ज्ञान वैसे ही है जैसे पुस्तक में लिखा रखा है। तब उस व्यक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ, और फिर इस बात की गहराई का भान होने पर उसने गहरी विचारधारा के तत्व को जीवन में उतारने का निश्चय किया।
अभी प्रयागराज में महाकुंभ का स्नान चल रहा है। वहां पवित्र त्रिवेणी का दिव्य जल है तो पुस्तक मेले में पुस्तकों में निहित ज्ञान-गंगा की बहती धारा है। महाकुंभ में भी अकल्पनीय जन सैलाब उमड़ रहा है और यहां मेले में भी बहुत जन-मानस उपस्थित है।
एक विलक्षण समानता दोनों स्थानों पर और है, वह है कुछ गहन पाने व कुछ उत्कृष्ट जानने की उत्सुकता। भारतीय जन मानस डुबकी लगाना जानता है। अब चाहे वह बहता जल हो या गहन ज्ञान का सागर। हमारी आस्था इतनी गहरी और विश्वास इतना अटल है कि यहां जो जीव, जिस किसी प्राप्ति की इच्छा करके और दृढ़ प्रतिज्ञ होकर अपने मन-वाणी-कर्म को साध कर, निस्वार्थ व स्थिर मन से पाना चाहता है वो उसे स्वयं भगवान प्रदान करते हैं।
(लेखक डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय, दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल में बेहोशी (एनेस्थिसिया) के डॉक्टर हैं। ऑपरेशन टेबल पर मरीजों को रिलैक्स करने में महारत हासिल है।)