प्रयागराज महाकुंभ 26 फरवरी को महाशिवरात्रि स्नान के साथ संपन्न हुआ। 62 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं में पवित्र कुंभ मेला क्षेत्र में आस्था और विश्वास की डुबकी लगाई। दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल के एनीस्थिसिया के डॉक्टर भुवन चंद्र पाण्डेय भी आस्था की डोर से खिंचे चले गए। प्रयागराज महाकुंभ को उनकी नजर से देखिए और समझिए।
प्रयागस्य पवेशाद्वै पापं नश्यतिः तत्क्षणात्।।
प्रयाग में प्रवेश मात्र से ही समस्त पाप कर्म का नाश हो जाता है।
ना जाने कितने सहस्त्राब्दियों से पवित्र ‘कुम्भ-स्नान’ की परंपरा चली आ रही है। इसकी जानकारी वर्तमान में शायद ही किसी मानव को होगी। यहां केवल विलक्षण खगोलीय घटनाएं और उनका प्रभाव ही नहीं है, ऐसा बहुत कुछ है जो अनूठा है अद्भुत है। पहला तो यही कि जहां बिना न्योता व आमंत्रण के इतना जन मानस स्वत: ही डुबकी लगाने आता है। हमेशा से ही पूरे विश्व के लोगों के लिए यह एक कौतूहल का विषय रहा है। दूर दूर से अनेक लोग इसे देखने, जानने व समझने आते रहे हैं।
अमेरिकी लेखक मार्क ट्वऐन (समुअल क्लीमेंस) ने 1895 में कुम्भ स्नान को देखा तो आश्चर्य से भर गया। उसने लिखा कि क्या दुर्बल? क्या वृद्ध? क्या निर्धन क्या सेठ? सब के सब बिना किसी संकोच-विचार के एक साथ डुबक़ी लगा रहे हैं। यह अकल्पनीय है।
1942 में तात्कालीन वायसराय ने जब कुम्भ मेला में इतना जन समूह देखा तो आश्चर्य में भरकर मदन मोहन मालवीय से पूछा कि इतने सारे लोगों को यहां बुलाने का खर्च कितना सारा आया होगा? तब मालवीय जी ने मुस्कुराते हूए कहा सिर्फ दो पैसा, जब पूछा तो बताया कि पंचांग के छापने का यही व्यय है।
हम सभी मानते हैं कि कुम्भ स्नान करने से पाप नष्ट हो जाते हैं। पर प्रश्न ये है कि पाप जाते कहां हैं? मान्यता है कि हमारे संत, महात्मा व नागा संन्यासी प्रत्येक कुम्भ में स्नान कर इन पापों को अपने ऊपर धारण कर लेते हैं। ये उन सभी दिव्य लोगों की एक विलक्षण सोच व अद्भुत क्षमता है। यहां पता चलता है कि सनातन दिव्य, भव्य, सरल और सहज़ तो है ही, साथ में निरंतर नित्य-नूतन को समाहित करके भी पुरातन है। नये विचारों को स्वीकार करने के बाद भी उसका मूल स्वभाव ना बदलना ही सनातन की सुंदरता है।
इस जीव-जगत में अनगिनत जन्म-जन्मानतरों, लाखों योनियों में भटकने के बाद मेरे जैसे बहुत से लोगों के लिए डुबकी लगाने का यह अनूठा समय आया है। मुझे इसका तनिक भी भान नहीं क़ि पहले कभी मैंने यहां प्रयागराज कुम्भ में डुबकी लगाई है या नहीं। अगर लगाई भी है तो कब और किस रूप में? जो भी हो यह मेरा अलौकिक अविस्मरणीय स्नान था। ऐसा पवित्र संगम का जल जिसमें स्नान करो तो प्रयास ऐसा हो क़ि केवल शरीर गीला करने के लिए नहीं, बल्कि जिससे शरीर और मन दोनों का ही मैल निकल जाये, मन का दृष्टि-बंधन ही समाप्त हो जाए।
प्रयाग सिर्फ मां गंगा की धवल धारा, मां यमुना का कृष्ण वर्ण का जल और अदृश्य माता सरस्वती की दिव्य देहमयी सरिता का ही संगम नहीं है। यह ज्ञान-विज्ञान-प्रज्ञान, मानवों-संतो-देवताओं, विश्वास–श्रद्धा-आस्था और इड़ा-पिंगला-सुशुमना का भी संगम है।
संगम एक अलौकिक दिव्य-भव्य त्रिवेणी की भूमि है। यहां आकर मिलना है तो मिलिए समाज को धर्म की दिशा दिखाते साधुओं से, कठोर नियम को ही जो जीवन का पर्याय बना चुके, उन देवतुल्य मनीषियों से, जिन्होंने घर-परिवार-समाज सब छोड़ा और समाज की सेवा ही जिनके जीवन का ध्येय है, उनके मुखारबिन्दु से बरसता अमृत रस, और उनकी गहन बातों का मर्म अगर जीवन में उतार लिया तो भव सागर पार हो जाएगा।
संभवतः इस विश्व के ज्ञात इतिहास में इतने कम दिनों में इतनी संख्या में जन मानस पहली बार इकट्ठा हुआ होगा। ऐसे अद्भुत पवित्र स्थान की विलक्षणता ही अलग थी। इतनी आस्था ! दूर प्रदेश और विभिन्न देशों से लोग उस अनुभूति को यहां संजोने आये थे, जिसको शब्दों में उकेरा ही नहीं जा सकता है। जितने प्रकार के लोग एक जगह हो सकते थे उससे ज्यादा यहां आ चुके है। यह ऐसे ही था जैसे ‘भूतो ना भविष्यति’।
बुद्धिमान व्यक्तित्व, वैज्ञानिक, व्यापारी, राजनेता, चिकित्सक, अभियंता, संत, महंत, महामंडलेश्वर, ऋषि, मुनि, सन्यासी, दिशाओं को ही अम्बर मानने वाले, धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले व समाज को नयी दिशा व सोच देने वाले, संभवतः ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा, जिसके अग्र पथ पर चलने वाले लोग इस दिव्य क्षेत्र पर ना पधारे हों। ऐसे लोग जहां एक साथ होंगे वहां दिव्यता तो होगी ही, साथ में होने वाला देवी-देवताओं का आह्वान, शंख के नाद, घंटा घड़ियाल, वेद-पाठ, अनेक प्रकार के योग को जो सिद्ध कर चुके हों ऐसे महानुभावों को प्रत्यक्ष देखने का सुअवसर कौन छोड़ना चाहेगा? ऐसे दिव्य लोग अपनी अमृत वाणी से लोगों को जीवन की दिशा देते हैं, कुछ की भाव-भंगिमाएं बहुत कुछ बता देतीं, वहीं कुछ संतों की गहरी बातें जिसे समझने के लिए कुछ विशेष गुण होना चाहिए।
यहां वे साधु भी है जो एकांतवास में गुफा-कंदराओं में रहते हैं और कुम्भ के समय ही समाज में दर्शन देते हैं। कल्पवासी जो पूरे माघ मास में संगम की रेती पर घ्यान, साधना व एकाबखत (दिन में एक बार आहार लेना) का व्रत करते हैं। मान्यता है कि उन्हें एक कल्प (ब्रह्मा जी का एक दिवस ) का पुण्य मिलता है। बहुत से ऐसे भी अनुभव हुए जो शायद शब्दों में नहीं लिखे जा सकते, उनकी केवल अनुभूति ही की जा सकती है।
एक बात और देखी कि अभी कुछ दिन पहले जहां अखाड़ों के बड़े बड़े आश्रम जैसे स्थान थे। अब समय के साथ अधिकतर साधु-संत काशी या अन्य स्थानों को जा चुके थे। जो सुन्दर, सुसज्जित, ऊंचे आसान पर थे वो सभी आज छोटे से टेंट में भक्तों को आशीर्वाद दे रहे थे। सीखने वाली बात यह थी कि उनके माथे पर ना कोई सिकुड़न थी, ना तनाव था तो केवल समभाव गद्दी हो या नहीं व्यवहार में कोई बदलाव नहीं, एक अद्भुत प्रेरणादायक सीख।
पवित्रता का वातावरण ऐसा कि जिसने कभी पैसे का मोह ना छोड़ा हो, वो भी जन-मानस की सेवा में हाथ जोड़कर तत्पर, दिन-रात सेवा में लगा है। लोगों का स्वयं का उत्साह व समर्पण ऐसा कि वो दिन-रात भंडारा कर रहे हैं।
कुंभ मेला क्षेत्र में कोई चाय पिला रहा है, तो कोई दवाई दे रहा है। ये सभी मानवता की सेवा में निस्वार्थ रूप से लगे है, मेरे स्वयं के कुछ परिचित तीन-चार दिनों तक अपने घर ही नहीं गए। अनगिनत लोग ऐसे सेवा के कार्य में लगे हैं वो भी बिना किसी दबाव या स्वार्थ के, यह देवत्व का गुण नहीं तो और क्या हैं? कुछ सेवा-मई लोग हमेशा ही सेवारत रहते हैं। प्रयागराज की इस महा-पवित्र रज में केवल इतना ही नहीं है। बहुत कुछ और भी है जो मेरी तुच्छ समझ से परे है।
यहां आकर पहली बार प्रत्य़क्ष अनुभव हुआ कि आस्था क्या होती है? लाचार, वृद्ध, निर्धन, संपन्न, सब एक जगह बिना किसी वैमनस्य व भेदभाव के सारे दुख तकलीफ भूलकर उस अमूल्य, विराट व सनातन परंपरा को जीवित रखने, कैसे भी करके यहां आये हैं। जब मैं परिवार सहित त्रिवेणी में स्नान करने उतरा तो देखा एक परिवार के साथ एक व्यक्ति जिसके दोनों हाथ व पैर नहीं थे, पर प्रेम से सभी ने उसके डुबकी लगाने क़ी व्यवस्था क़ी। पर वे चूंकि तीन लोग थे और भारी शरीर को सम्हालने में मुश्किल हुई तो मैंने भी हाथ लगा दिया, बाद में उसकी आंखों में प्रेम रस क़ी बूंदों को मैंने पढ़ा था।
यहां यह भी पता चला कि हमारे ‘श्रवण कुमार’ सरीखी संतानों को जनने वाली मांए आज भी इस धरा पर हैं। जब भी हम ऐसा नैनाभिराम दृश्य देखते हैं कि अपने कांधे पर, वृद्ध माता-पिता को लिए उनकी पुत्री, पुत्र या कोई और, बड़ी जतन व मन से स्नान कराता है, संस्कार की विनम्रता से खुद को झुकाकर वो आकाश सा उठ जाता है। आकाश क़ी अनंत ऊंचाइयों से निहारते देव-गण भी अपनी प्रिय भारत की ऐसी संतान के लिए पुष्प वर्षा करते होंगे।
आज तक इतनी संख्या में आस्थावान लोग कभी भी ना पहुंचे होंगे, जितना कि यहां पर इतने कम दिनों में एकत्रित हुए। इस पूरे महा-कुम्भ प्रायोजन में अगर मैं व्यवस्था की बात ना करूं तो पूर्णता आ ही नहीं सकती। यहां पर देखने को मिली तत्परता से सफाई, सुरक्षा व अग्नि शमक दलों का यों लगातार कार्य पर डटे रहना, व्यवस्थापकों क़ी वर्षो क़ी योजनाओं व कार्य कुशलताओं को दर्शाता है। हर कुछ दूरी पर नल, पाखाने व कपड़े बदलने की समुचित व्यवस्था, यह सब एक उत्कृष्ट, दूर द्रष्टा व वृहद सोच को दर्शाता है।
विश्वास, रहस्य, श्रद्धा, आस्था व अलौकिक अनुभूति का यह कुम्भ एक अलग ही दिव्यता लिए है। ऐसा लगा जैसे स्नान के बाद लोग गहरी निद्रा से जागकर स्वयं को ऊर्जावान, प्रसन्न व उत्साहित महसूस कर रहे हैं। ना न्योता-ना आमंत्रण- यह स्व तत्त्व जानने का प्रयोजन है, यह महा-कुम्भ है।
(लेखक डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय, दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल में बेहोशी (एनेस्थिसिया) के डॉक्टर हैं। ऑपरेशन टेबल पर मरीजों को रिलैक्स करने में महारत हासिल है।)