दुनिया भर में पुरस्कार और सम्मान के लिए लालायित होने का कोई अर्थ नहीं है। जो योग्य है वो लालायित नहीं होते। जो अयोग्य हैं वो जुगत में लगे रहते हैं। पुरस्कार और अवॉर्ड की बाहरी प्रतिष्ठा के लालायित और इस प्रतिष्ठा से प्रभावित होने वालों को होश में लाने वाला गंगाराम अस्पताल के बेहोशी के डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय का आलेख।
- एक दूसरे को खुश करने या जुगत लगा कर दिया जाने वाला मान-सम्मान एक मति-भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। उस समय भले ही लोग ताली पीट देते हैं और वाह-वाह कहते हैं पर सभी को पता लग जाता है कि यह कैसे संभव हुआ है, और सबसे ज्यादा तो सम्मान पाने वाले व्यक्ति को अन्दर से ये अनुभूति होती ही है उसे यह कैसे मिला, अगर अंतर्मन शुद्ध है तो ग्लानि तो होती ही होगी?
- वाह्य प्रतिष्ठा के लिए छटपटाने का अर्थ है कि हम भीतर से संतुष्ट नही हैं। किसी तरह समाज को दिखाने के लिए कुछ अवार्ड, सम्मान या नाम कमाने का साधन मिल जाता है तो उनको बाहरी दिखावे की खुशी मिल जाती है, जिससे निरंतर उनकी धाक बनी रहे और मान-सम्मान मिलता रहे।
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहां सुमति तहं संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
सुन्दरकाण्ड, श्री रामचरित मानस
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है। जहां सुबुद्धि है वहां नाना प्रकार की संपदाएं (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहां कुबुद्धि है वहां परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥
अपने गांव की मिट्टी की सुगंध सभी को अपनी ओर खींच कर ले आती है, मेरे साथ भी ऐसा ही है। पर कोविड महामारी के बाद से ही किसी ना किसी कारणों से मैं वहां नहीं जा पाया, जिस कारण से अपनी जड़ों पर जाने की प्यास और प्रबल हो गयी थी। भीगी मिट्टी और भीगे पत्तों की भीनी सी ये गंध ना जाने कहां और किस लोक में ले जाती है कि मन करता है बस उसी में लोप हो जाऊं। प्रकृति माता ने अपना सौन्दर्य आंचल में भर कर दसों दिशाओं में बिखेरा है। वहां पहुंचकर मैं शायद स्वयं में ही नहीं रह पाता हूं।
मेरा गांव देवभूमि भारत के हिमालय पर्वत श्रंखला क्षेत्र में स्थित सुरम्य व सुन्दर स्थान पिथौरागढ़ (उत्तराखंड) नगर के पास है। मीलों दूरी तक फैली पर्वत मालाएं उस परमपिता की असीम शक्ति का अहसास करा देती हैं। रात को होने वाला घुप्प अंधेरा आपको सूर्य देव की महत्ता का अर्थ बता देता है। चारों तरफ फैले हरे-भरे व नभ छूते पर्वत यह अहसास करा देते हैं कि तुम्हारा पद कितना ही बड़ा हो पर कद छोटा ही रहेगा।
विशाल पर्वत यह भी बताते हैं कि अगर पहाड़ के जैसी ऊंचाई प्राप्त करनी हो तो झुककर चढ़ना सीखना चाहिए। अहंकार व अकड़ में तने हुए शरीर से कोई नभ की ऊंचाई नहीं पा सकता है।
कई बार बनते-बिगड़ते कार्यक्रम के बाद उचित समय आने पर कार्यक्रम निर्धारित हुआ और एक लम्बी यात्रा प्रारम्भ हुई। हमारी कैब सीधी व सपाट मैदानी रास्तों में तेज गति से चलने के बाद, अब पहाड़ के सर्पीले रास्ते में धीमी गति से चलते हुए माता यशोदा की मथानी की तरह बार-बार बदल-बदल कर दाएं -बाएं घूमने लगी थी। यही कारण है कि यात्रियों की सुरक्षा के लिए सरकार ने जगह-जगह लिखाया है ‘माठू- माठू हिटिया’ (धीरे-धीरे चलें), ननतिन इंतजार में छन (बच्चे इंतजार में है), मोड़ों भी लिखा होता है-हॉर्न बजा दी प्वां-प्वां (हार्न बजाएं पौं-पौं ), मजेदार से शब्द परन्तु उसमें निहित होती है गंभीर चेतावनी। इन सर्पाकार रास्तों में धीमी और संतुलित गति से चलाना ही समझदारी है, पर जिम्मेदारी के साथ लगातार इतने सारे लोगों को सुरक्षित मंजिल तक लाना-ले जाना भी आसान कार्य नहीं।
दैविक कारणों से बीच-बीच में टूटी-फूटी रोड तो मिली पर साथ में नदियां, जंगल-पहाड़-झरने व एक दो जंगल के जानवर अपनी उपस्थिति का अहसास कराकर घने जंगलों में लोप हो गये। देखते-देखते इस यात्रा में प्रातः से प्रारम्भ करने के बाद संध्या समय के बाद ही मैं वहां पहुंचा। नवरात्रि उपवास के कारण भूख अपने चरम पर थी, मैंने पूजा गृह में पूजा की और अपनी आदरणीय चाची जी के हाथों से बना प्रेम और आशीर्वाद से डूबा भोजन ग्रहण किया, जिससे उदर तृप्त हुआ और मन को एक आत्मिक शांति मिली। फिर कुछ देर अलट-पलट करने के बाद गहरी नींद में सो गया।
अगला पूरा दिवस काफी व्यस्त था, विभिन्न विधाओं के अनेक भद्रजनों से मुलाक़ात हुई, जिनमें कुछ चिकित्सक, शिक्षक व कुछ कला के क्षेत्र में एक अतुलनीय स्थान प्राप्त कर चुके हैं, उनके क्षेत्रों में विशिष्ट कार्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करके प्रसन्नता हुई। अगले दिन मेरी भेंट गांव के भाई, बन्धुओं व बजुर्गों से हुई। इनके सानिध्य में एक अलग ही अनुभूति होती है। फिर कुछ परिचितों व बहुत से अपरिचित लोगों से मुलाक़ात हुई जो बाद में मेरे परिचित हो गये थे। मेरे इस गृह नगर की यात्रा के दौरान कुछ स्थानों पर मुझे सम्मान दिया गया, किसी ने शाल-ओढ़ाकर तो किसी नें फूलों के गुलदस्ते से अपने प्रेम में बांध लिया। जगह-जगह मिला ये सम्मान, मेरे मन मस्तिष्क को एक अलग लोक में ही ले गया। समय बीतने के साथ-साथ मेरा वापसी का समय भी आ गया, घुरघुराती टैक्सी में बैठ कर दोबारा लम्बी यात्रा के बाद मैं भारत वर्ष की राजधानी और मेरी कर्मस्थली दिल्ली पहुंच गया।
जबसे कुछ बड़ा हुआ, सोचता हूं कि ‘शिक्षा व स्वास्थ्य’ ऐसे दो क्षेत्र है, जिससे समाज को उर्ध्व दिशा दी जा सकती है। स्वास्थ्य से मैं जुड़ा हूं और शिक्षा (पठन-पाठन) का रिश्ता मुझे अतिप्रिय है। वापस लौटने के कुछ समय बाद मैंने सोचा कि यह जो मान-सम्मान मुझे दिया गया, वो भी ऐसे लोगों के द्वारा जो अपने आप में किसी संस्थान से कम नही हैं। इन विलक्षण लोगों में से कोई शिक्षा क्षेत्र में तो कोई संगीत, गायन, नाटक, साहित्य व अध्यात्म में आकाश की ऊंचाइयों को नाप चुके थे। इन विभूतियों से सम्मान पाना एक अनूठा एहसास था, यह वो लोग हैं। जिनका व्यक्तित्व एक ग्रंथ के ज्ञान जितना गहरा है और साथ ही साथ मां गंगा के जल जैसा स्वच्छ, निर्मल व ताप रहित होने पर भी सबके लिए सुलभ है।
कुछ समय पश्चात मैंने जब मंथन किया तो अपने आप से प्रश्न किया कि क्या मैं इस योग्य भी था? क्या कहीं किसी और का स्थान तो नहीं झपट लिया? फिर जब मेरे मन में यह विचार आया कि यह सम्मान मेरे लिए नहीं बल्कि सेवामयी चिकित्सा-विधा के लिए है तब जा कर मन में चल रहा अंतर्द्वंद् समाप्त हुआ और मैं शांत हो पाया।
किसी अच्छे कार्य के लिए सम्मान देना, जिसका उद्देश्य उत्साहवर्धन और अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करना होता है, वह उचित है। स्तुति या सम्मान पाना किसे अच्छा नहीं लगता है, लेकिन क्या सभी लोग कुछ विशेष व उत्कृष्ट सम्मान के लिए उचित चुनाव होते हैं। इसी सोच व उधेड़बुन में लगा था कि तभी हवा की विभिन्न परतों को चीरता हुआ टिंग की ध्वनि के साथ एक मैसेज मेरे मोबाइल में आया, जिसमें दार्शनिक आचार्य रजनीश ‘ओशो’ का एक वाक्य था। सुन्दर शब्दों में साफ साफ लिखा था “प्रतिष्ठा तो वही लोग खोजते हैं, जिन्हें अपने अंदर आनंद न मिला हो” सत्य बात है कि वाह्य प्रतिष्ठा के लिए छटपटाने का अर्थ है कि हम भीतर से संतुष्ट नही हैं। किसी तरह समाज को दिखाने के लिए कुछ अवार्ड, सम्मान या नाम कमाने का साधन मिल जाता है तो उनको बाहरी दिखावे की खुशी मिल जाती है, जिससे निरंतर उनकी धाक बनी रहे और मान-सम्मान मिलता रहे।
लेकिन हम अंदर से उस सम्मान के योग्य नहीं हैं तो बाहरी रूप से कितना ही मुस्कान दिखा लें पर अंतर्मन की दृष्टि से वह आनंद व सुकून नहीं मिल पाता है, क्योंकि जब भी-जिस भी व्यक्ति में कठिन परिश्रम से वह योग्यता आ जाती है तो उसके आचरण में आंतरिक सुकून व ठहराव आ जाता है और फिर वह साधारण पहनने, बोलने व कार्य करने में भी असाधारण व्यक्तित्व का परिचय देते हैं। धीरे-घीरे वह दिखावटी व गौण से पुरस्कारों/सम्मान पाने के इन सब झंझावातों से परे निकल जाता है। उसके पश्चात वह व्यक्ति अवार्ड, सम्मान या प्रतिष्ठा पाने के लिए कोई जुगत नहीं लगाता, क्योंकि वह जो पा चुका उसे वाह्य चीजों से प्राप्त ही नहीं किया जा सकता है। अगर उस किसी भी व्यक्ति विशेष का आचरण ऐसा नहीं है तो वह दूसरों का मुंह ताकता है कि सामने बैठा व्यक्ति उसकी प्रशंसा करे, आप बहुत अच्छे है-आपका काम बढ़िया है-या ऐसे ही कुछ और बातें। बढ़िया काम करने वाला ना किसी की बुराई करके अपने को ऊंचा दिखाता है ना ही अपनी बड़ाई करके, क्योंकि भीतर से संतुष्ट को इन सबकी कोई आवश्य्कता नहीं होती। यह विडंबना है कि जो योग्य है और अंतर्मन से तृप्त है, उसे जरूरत ही नहीं और जो अयोग्य है वह कुछ पाने के लिए किसी भी प्रकार की जुगत लगाते हैं।
अगर कार्य पूरी निष्ठा से किया जाये तो किसी के सामने झुकने की अवश्यकता नहीं पड़ेगी, और कार्य ठीक नहीं है तो सबके सामने झुकना पड़ेगा।
ए पी जे अब्दुल कलाम
पंच-वायु जो कि जीवन की आधार भूत जीवनी शक्ति प्रदान करते हैं, पर इन्हे साधने के लिए अनुसाशन व कठिन परिश्रम करना पड़ता है, संघर्ष व परिश्रम से सशक्त हुए प्राण उसे ऊर्जा से भर देते हैं। जिस प्रकार मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद वो जीवंत माने जाते हैं, जिस प्रकार हमारे शरीर में प्राण होना हमारे जीवित होने का प्रमाण होता है पर ठीक इसके विपरीत बिना योग्यता के कोई पद, प्रतिष्ठा या सम्मान लेना या किसी और को प्रदान करना, वैसे ही है जैसे बिना प्राण-प्रतिष्ठा के किसी मंदिर के गर्भगृह में मूर्ति स्थापित करना, तेजहीन-प्राणहीन होकर भी उसे प्रतिष्ठित जैसा दिखाना, इस प्रकार पूजा तो होगी पर वह ऊर्जा नहीं होगी।
हमारे शरीर में कभी आसुरी तो कभी दैविक प्रवत्ति प्रबल होती रहती है, यह हमारे विवेक पर है कि किसका साथ देना है। योग्य या अयोग्य को सम्मान या पद देना, इस विषय में हमेशा ही द्वन्द रहा है।
चाहें वह द्वापर हों या त्रेतायुग, और चाहें वर्तमान में व्यतीत होता कलयुग। हमारे अंदर भी रामायण और महाभारत जैसा अंतर्द्वंद् निरंतर चलता है। जब द्वन्द समाप्त हो जाता है तो अयोध्या का निर्माण होता है। अवध की राजधानी अयोध्या का अर्थ है जहाँ कोई युद्ध ना हों अर्थात द्वन्द ही समाप्त हो गया हो। जब दश रथों (दशरथ) – (पांच ज्ञानेंद्रियां व पांच कर्मेन्द्रियां) पर कुशलता (माता कौशल्या) पूर्वक नियंत्रण रखा जाता है तब राम का जन्म होता है। राम शब्द-रम (रमना या निहित होना) व घम (ब्रह्माण्ड का खाली स्थान) से मिलकर बना है, रमंते इति राम: अर्थात जो रोम-रोम में बसता हो, जो पूरे ब्रह्माण्ड में बसता हो वही राम है। राम केवल एक नाम ही नहीं, एक महामंत्र भी है। राम के जन्म का अर्थ है कि जब-जब भटकाव-ठहराव, भ्रम-दृष्टि, मद-मोह, सुख-दुख आदि समाप्त हो जाते हैं तो है वहां राम का जन्म होता है।
अगर द्वन्द हटाकर और पक्षपात को दूर रखकर कार्य किया जाए तो अनेक विवादों से बचा जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह तो बिल्कुल नहीं है कि हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, और कुछ ना करें। अगर भव सागर से पार होना है तो इस संसार रुपी सागर में नाव तो खेनी ही होगी, नाव डगमग भी होगी और हिचकोले भी खाएगी। इसलिए अपना जीवन ऐसे व्यतीत करना चाहिए जैसे कि संत तुलसीदास जी ने कहा है –
तुलसी इस संसार में भांति–भांति के लोग, सबसों हिल मिल चलिए, नदी–नाव संजोग’
जिस प्रकार नदी और नाव एक-दूसरे के पूरक होते हैं और एक-दूसरे के बिना अधूरे होते हैं। हमें भी समाज में सभी के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए। सुखी हों या दुखी, जिस भी प्रकार से हो, चलती हुई यह जीवन यात्रा समाप्त तो हो ही जाएगी पर अगर हो सके तो जीवन ऐसे जीना चाहिए कि मन में द्वन्द ना रहे और स्वच्छन्द भाव रहे। ताकि मृत्यु शैय्या में जीव के प्राण, पीड़ा रहित होकर शांति से निकले और अगली यात्रा प्रारम्भ हो। हमारे हाथ में तो केवल कोशिश करना ही है, बाकी तो ‘होइहि सोइ जो राम रची राखा’।
(लेखक डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय, दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल में बेहोशी (एनेस्थिसिया) के डॉक्टर हैं। ऑपरेशन टेबल पर मरीजों को रिलैक्स करने में महारत हासिल है।)