मंत्रों की शक्ति अनंत, स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक उन्नति में मंत्रों का प्रभाव

Yagya

मंत्र के दो व्यापार हैं—मनन और त्राण। जो मनन किए जाने पर त्राण करे, वही मंत्र कहलाता है।

 

मननात त्रायत इति मंत्रः।
मनन त्राण धर्माणो मंत्राः।

 

मन को एकाग्र करके जप के द्वारा समस्त भय का विनाश कर पूर्ण रक्षा करने वाले शब्दों को मंत्र कहा जाता है। मन् और त्र, इन दोनों शब्दों से मिलकर मंत्र बना है। मन् शब्द से मन को एकाग्र करना तथा त्र शब्द से त्राण (रक्षा) करना तात्पर्य है। जो जप से अभीष्ट फल प्रदान करे, वही मंत्र कहलाते हैं।

 

वर्णमाला के ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक के पचास अक्षरों को मातृका कहते हैं। इन मातृका वर्णों से ही समस्त मंत्रों की रचना हुई है। ये समस्त मंत्र वर्णात्मक हैं और मंत्र शक्ति-संपन्न हैं। यह मातृका की ही शक्ति है और शक्ति शिव की है। अतः समस्त मंत्र साक्षात् शिव-शक्ति स्वरूप हैं।

 

मंत्रा वर्णात्मका सर्वे, सर्वे वर्णा शिवात्मका।

 

एक अक्षर वाले मन्त्र की ‘पिण्ड’ संज्ञा कही गई है, एवं दो अक्षर की ‘कर्तरी’, तीन अक्षर से नौ अक्षर तक के मन्त्रों को ‘बीज’ मन्त्र कहा जाता है, दस अक्षर से बीस अक्षर तक का ‘मन्त्र’ नाम होता है। बीस अक्षर से अधिक संख्या वाले मन्त्रों को ‘माला’ मन्त्र कहते हैं ।

 

मंत्र की शक्ति को गुप्त रखा गया है। अतः जो मंत्र का गुप्त तत्त्व है, वही मंत्र है; किंतु शेष वर्णादि मात्र वर्ण हैं, वे मंत्र नहीं हैं।

 

तत्ववादियों के अनुसार समस्त विश्व मात्र तत्व का विस्तार है। यदि तत्व जलाशय है, तो विश्व उसकी तरंगों की समष्टि है। तत्व के अतिरिक्त विश्व में कुछ भी नहीं है—या तो वह तत्व है या उसका विस्तार। जब भगवती पार्वती ने ब्रह्मांडोत्पत्ति की प्रक्रिया पर प्रश्न किया, तब भगवान शिव ने तत्व के दो प्रकार बताए—

 

1. परम तत्व (निर्जन, निराकार, अद्वैत महेश्वर)
2. अन्य मूलभूत तत्व—पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)

 

गोस्वामी तुलसीदास ने इसी पंचमहाभूत की व्याख्या रामचरितमानस में की है—

 

“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।
पंच रचित यह अधम शरीरा।।”

 

शास्त्रों में कहा गया है—“यत्र पिण्डे तत्र ब्रह्माण्डे।”

 

अर्थात् जो मानव शरीर में है, वही ब्रह्मांड में भी विद्यमान है। परमात्मा का दृश्य स्वरूप सृष्टि है, और वही मानव मात्र में भी समाहित है। इसकी पुष्टि अहं ब्रह्मास्मि तथा तत्त्वमसि महावाक्यों से होती है। शरीर में पंचतत्वों की स्थिति एवं संतुलन से ही मानव स्वस्थ रहता है। किसी भी तत्व के असंतुलन से रोग एवं व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं।

 

पंचमहाभूत एवं उनके बीजमंत्र

 

1. पृथ्वी तत्व—इसके पाँच गुण हैं: अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी, रोमावली। इसका बीजमंत्र लं है।
2. जल तत्व—इसके पाँच गुण हैं: वीर्य, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार। इसका बीजमंत्र वं है।
3. अग्नि तत्व—इसके पाँच गुण हैं: क्षुधा, तृषा, निद्रा, कांति और आलस्य। इसका बीजमंत्र रं है।
4. वायु तत्व—इसके पाँच गुण हैं: दौड़ना, चलना, ग्रंथि स्राव, शरीर का आकुंचन एवं विस्तार। इसका बीजमंत्र यं है।
5. आकाश तत्व—इसके पाँच गुण हैं: राग, द्वेष, लज्जा, भय, मोह। इसका बीजमंत्र हं है।

 

मंत्र का प्रभाव

 

मंत्र की ध्वनि नाद की प्रसारित शक्ति है, जो सृष्टि का कारण है। संपूर्ण विश्व मंत्रों का ही अभिव्यक्त रूप है। मंत्रों द्वारा अव्यय ब्रह्म के संयोग से शरीर में स्थित पंचभूतों का शोधन एवं सूक्ष्म-स्थूल शरीर की शुद्धि संभव होती है।

* लं बीजमंत्र का ध्यान करने से जलतत्व से संबंधित रोगों का शमन होता है एवं मूलाधार चक्र जागृत होता है।
* रं बीजमंत्र का ध्यान करने से भोजन-पान की पाचन शक्ति बढ़ती है तथा अग्नि का संतुलन स्थापित होता है।
* यं बीजमंत्र के ध्यान से वायु विकारों का शमन होता है एवं अनाहत चक्र जागृत होता है।

 

मंत्रों का ध्वन्यात्मक प्रभाव भी होता है। मंत्र वाणी के चार रूपों—
परा, पश्यंती, मध्यमा एवं वैखरी के माध्यम से कार्य करता है।

 

उदाहरणतः,
“ॐ नमः शिवाय” के उच्चारण में—
* ॐ—आज्ञाचक्र
* नमः—मणिपुर चक्र
* शि—विशुद्धि चक्र
* वा—स्वाधिष्ठान चक्र
* य—हृदय चक्र को जाग्रत करता है।

 

मंत्रों की शक्ति अनंत है। स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक उन्नति में मंत्रों के प्रभाव पर विस्तृत ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। किंतु प्रस्तुत लेख मात्र एक संक्षिप्त टिप्पणी है।

 

साथ ही यह ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि—“मंत्र, तीर्थ, द्विज, दैव, औषधि और गुरु में, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वैसी ही सिद्धि होती है।”

 

सुरेश कुमार सिंह