चिकित्सा के दौरान रोगी को बेहोश करना और वापस होश में लाना दैवीय कार्य

चेतन मन को अचेतन कर देना और फिर उनकी चेतना को वापस ले आना। यह बिलकुल भी आसान नहीं है। सरल शब्द में कहे तो चिकित्सा जगह में बेहोशी के डॉक्टर के काम और महत्ता से आमजन ज्यादा परिचित नहीं है। लेकिन ऑपरेशन टेबल पर ऑपरेशन से ठीक पहले रोगियों के मनस्थिति शांत रखते हुए […]

चेतन मन को अचेतन कर देना और फिर उनकी चेतना को वापस ले आना। यह बिलकुल भी आसान नहीं है।

सरल शब्द में कहे तो चिकित्सा जगह में बेहोशी के डॉक्टर के काम और महत्ता से आमजन ज्यादा परिचित नहीं है। लेकिन ऑपरेशन टेबल पर ऑपरेशन से ठीक पहले रोगियों के मनस्थिति शांत रखते हुए उन्हें संज्ञाशून्य करना किसी दैवीय कार्य से कम नहीं है। इस कार्य को अंजाम देते वक्त चिकित्सक और रोगी की मनस्थिति पर दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल के एनेस्थिसिया के विशेषज्ञ डॉक्टर भुवन चंद्र पाण्डेय का विशेष और विस्तृत लेख।

योग, आयुर्वेद, प्राकृतिक व आधुनिक चिकित्सा प्रणाली, सभी का उद्देश्य मानव की व्याधियों (रोग) को कम करना व उनको स्वस्थ बनाये रखना है। यूं तो सभी कार्यों, विधियों व विधाओं में दैवीय गुण निहित होते हैं, जो निस्वार्थ सेवा भाव के रस से ओत-प्रोत होकर सभी के उत्थान में सहायक होते हैं, परन्तु उनमें भी जो किसी की भयंकर पीड़ा को कम कर दे वो विशेष हैं। इसी प्रकार जो उनके ऑपरेशन के दौरान उन्हें संभावित पीड़ा से मुक्त कर दे व उन्हें चेतना शून्य कर दे, ऐसी विधाएं कुछ विशेष स्थान रखती हैं और ऐसी ही एक विधा है संज्ञाहरण या निश्चेतना

संभवतः किसी दैवीय योग या पूर्व के प्रारब्ध के कारण ही मेरा चिकित्सा विधा में प्रवेश हुआ। ये मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। मेरे अनगढ़ विद्यार्थी जीवन को एक नई दिशा मिली और मेरे सम्पूर्ण जीवन को एक नया आयाम। यहां आने पर पता चला कि चिकित्सा की इस विधा में बहुत विस्तृत पाठ्यक्रम, लम्बी अवधि की पढ़ाई और कठिन परीक्षाएं हैं। हालांकि इसमें कुछ नया नहीं है, यह सब हमारी आधुनिक चिकित्सा शिक्षा पद्धति के अभिन्न अंग हैं। एक बार आरम्भ कर लो तो समय बीतने के साथ-साथ सब कुछ हो जाता है। दोस्त व वरिष्ठ लोग ना होते तो यह समय और ज्यादा मुश्किल हो जाता, खैर, समय बीतता गया और स्नातक पाठ्यक्रम का पहला पड़ाव पार किया।

जब परास्नातक में प्रवेश हुआ, तो प्रारंभिक कुछ दिनों में बड़ी असमंजस की स्थिति रही क्यूंकि ज्यादा कुछ समझ में नहीं आ रहा था। प्रथम दो सप्ताह मेरे लिए बहुत कठिन थे, ना तो किसी तकनीक का पता ना किसी दवाई का और ना ही किसी यन्त्र (इंस्ट्रूमेंट) का, पर फिर धीरे-धीरे अच्छे दोस्तों, ध्यान रखने वाले वरिष्ठजनों और उत्तम आचार्यों के कारण मन इसी विधा में रम गया और वो भी ऐसा रमा कि अब तो ऐसा लगता है कि मैं इस विषय के लिए ही बना था।

प्रशिक्षण के दौरान जब अनेकों बार मरीज या उनके साथ आये माता-पिता से बात करता तो कुछ अलग सी अनुभूति होती। आज भी मुझे याद है जब एक मजदूरी का कार्य करने वाले व्यक्ति से उसके बेटे के लिए कुछ रुपये की दवाई मंगवाई तो वह नहीं ला पाया। मैंने पूछा अरे भाई अपना खाना तो खा ही लेते होंगे उसके पैसे कहां से आते हैं? उसने बताया कि घर से चले थे कुल 150 रुपये थे, जो कि तीन दिन पहले ही खत्म हो गये थे। रोज खाते और रोज ही कमाते हैं। पिछले कुछ दिनों से एक पैसे की भी कमाई नहीं हुई है। दो दिन से मैंने भोजन ही नहीं किया है। मैं स्तब्ध था। मुंह से एक शब्द ना फूटा। घनिष्ठ मित्रों के साथ मिलकर उसकी कुछ व्यवस्था कर पाया तो मन को शांति मिली।

ट्रेनिंग प्रशिक्षण समाप्त हुए कई वर्ष बीत चुके हैं। अब दशकों के बीत जाने के बाद यह समझ में आने लगा है कि हमारी विधा एक मात्र ऐसी विधा है, जिसमें मरीज अपना पूरा शरीर हमें सौंप कर निश्चिंत हो जाता है। ये हमारे लिए भी एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। चेतन मन को अचेतन कर देना और फिर उनकी चेतना को वापस ले आना। यह बिलकुल भी आसान नहीं है। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि पढ़े लिखे लोगों को भी इस विषय की महत्ता का पता नहीं है।

निश्चेतना से पहले लोगों से बात करना व उनके अंदर के भय को पहचानना व उनके प्रश्नों के उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट करने के बाद ही अवचेतन मन शांत होता है। एक बार शांत हो गया, तो बेहोशी से निकलने के बाद भी वह अशांत नहीं होता है। बहुत से लोगों के साथ बात करने पर अलग-अलग अनुभव हुए। खट्टी-मीठी बातें पता चली। साथ ही साथ कई सीख भी मिलीं। ये आज जीवन को दिशा देने में सहायक सिद्ध हो रही है। ऐसे ही कुछ अनुभव आप लोगों के साथ साझा कर रहा हूं।

चेतन मन को अचेतन की अवस्था में ले जाने से पहले प्रायः मैं उनकी  मन: स्थिति को समझने का प्रयास करता हूं। एक बुजुर्ग व्यक्ति जो बहुत से कारखानों के मालिक थे, छाती की बीमारी से सम्बंधित इलाज के लिए आये। मंद मुस्कान में लिपटे हुए डर का भाव। मैं साफ देख सकता था। बहुत सी अन्य बीमारियां व अधिक खतरा होने के कारण मैंने उन्हें सारी जानकारी दी और हमारी निश्चेतना की सीमाएं भी बता दी। उन्होंने कहा कि मर भी जाऊं तो परेशानी की बात नहीं है। पर दर्द नहीं होना चाहिए, मैंने कहा अपनी तरफ से आपको ठीक रखकर जितना भी संभव होगा उतना किया जायेगा, आप चिंता ना करें।

लगभग एक घंटे तक प्रोसीजर का कार्य चला, बाद में वो बहुत प्रसन्न हुए कि वाकई में कुछ पता नहीं चला। रिस्क ज्यादा होने के कारण कुछ देर मैं उनके साथ ही था, बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा कि बाबूजी आप मुझसे आयु में बहुत बड़े हैं, क्या आप ये बता सकते हैं कि जीवन में क्या नहीं करना चाहिए? वे मुस्करा कर धीरे से बोले, पहले पैरों के पास खड़े मेरे दोनों बेटों को बाहर कर दो, मैंने वैसा ही किया। तब उन्होंने बताया कि बेटा जीवन में कभी भी अपने बेटों, पत्नी या किसी के भी दबाव में आकर गलत निर्णय या किसी के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए। मैंने भी कुछ ऐसे निर्णय लिए जो अब मैं भूतकाल में जाकर नहीं बदल सकता हूं। वे निर्णय आज भी मुझे शूल की तरह चुभते हैं, पर वे सभी मुझे भोगने ही होंगे। उस कमरे में या तो उनकी गंभीर आवाज थी या मॉनिटर की बीप-बीप की, एक बुजुर्ग से जीवन की यह एक अनूठी सीख मिली थी, मैंने मन ही मन उनको धन्यवाद दिया और कुछ समय उन्हें देखने के बाद मन ही मन कुछ सोचता हुआ वहां से निकल गया।

कुछ अधिक आयु की प्रसन्न चित्त माताजी को जब ऑपरेशन थिएटर में लिया तो माथे पर  थोड़ा सिकुड़न थी, पर मुझे लगा कि शायद सर्जरी की वजह से तनाव होगा। ब्लड प्रेशर ज्यादा बढ़ा हुआ था। जबकि उन्होंने सारी दवाइयां भी ले रखी थीं। कुछ देर बात करने पर पता चला सुबह उनकी बेटी दूसरे शहर से मिलने आ रही थी पर किसी कारण से विलम्ब हो गया और वो नहीं पहुंच सकी है। मैंने बेटी से उनकी बात करा दी। वो उस समय भी रास्ते में ही थी। इस बातचीत के कुछ देर में ही उनका ब्लड प्रेशर साधारण माप की सीमा में आ गया। बिना किसी परेशानी के सर्जरी हो गयी। कई बार मरीज की मन:स्थिति समझ में आ जाये तो पता चलता है कि मन में थोड़ी सी भी कसक रह जाए तो वह विषाद पैदा कर देता है।

हमारे एंडोस्कोपी कक्ष में एक दिन में बहुत सी जांचे व अन्य कार्य किये जाते हैं। ऐसे ही एक दिन एक बुजुर्ग माताजी, जिन्हें बहुत सी बीमारियां थी और खतरा बहुत था, उस कक्ष में अंदर ले जाने से पहले सारा रिस्क कुछ विस्तृत रूप से बता दिया गया। उन्हें अपनी जान की ज्यादा परवाह नहीं थी, पर घर का काम सुचारु रूप से चलना चाहिए इसकी ज्यादा चिंता थी। उन्होंने बेटा बहू को बुलाकर दिवाली के लिए बहुत से कामों की लम्बी सूची बता दी। बेहोशी से पहले मैंने उनसे कुछ बातें की और केस पूरा होने के बाद उन्हें बाहर भेजने। होश में हाने पर फिर उन्होंने अपनी बहू को बुला कर बचे हुए काम भी बता दिए और शांत होकर लेट गयी। ऐसा लगा कि माताजी के सो जाने पर उनकी सोच को वहीं विराम लगा और जागने पर वह उसी विचार बिंदु से दोबारा आरम्भ हुई। पहली बार यह आभास हुआ कि अचेतन की अवस्था होने पर भी अवचेतन मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, वह ज्यों की त्यों रहती है।

एक दिन सवेरे-सवेरे पहले मरीज के रूप में बुजुर्ग व्यक्ति ओटी में आए। वो आध्यात्मिक रुझान रखते थे। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि सभी तीर्थों के दर्शन कर चुके हैं, बस एक तीर्थ तिरुपति बालाजी जाने की कसक रह गयी है। मैंने कहा कि सब हो जाएगा चिंता ना करें। ऊपर वाले पर विश्वास रखें। बात करते-करते बेहोशी की दवाई दे दी गयी। कुछ समय में कुशल हाथों द्वारा शल्य चिकित्सा पूर्ण हुई। बेहोशी से बाहर निकलने पर वो मुस्कुरा रहे थे। पूछने पर बताया कि मेरी अंतिम इच्छा पूरी हुई, मैंने भगवान तिरुपति जी के दर्शन कर लिए। मैं चौंक पड़ा पर फिर सोचा कि ऊपर वाले की होनी-अनहोनी वही जानता है जैसा कि कहा गया है ‘होइहै सोइ जो राम रचि राखा’।

पवित्र क्षेत्र देवघर से शल्य चिकित्सा के लिए आये व्यक्ति से जब बात शुरू हुई तो मैंने देवाधिदेव महादेव भगवान शिव जी के बारे में बहुत से प्रश्न पूछे व उत्तर सुने। बात करते हुए मैंने उन्हें अचेतन कर दिया। पुन: चेतना में आने पर उनका प्रथम वाक्य था कि आपके तीसरे व चौथे प्रश्न का उत्तर मैं ठीक से नहीं सुन पाया था। इससे पहले कि मैं यहां से कमरे में भेज दिया जाऊं, मुझे वे उत्तर बता दीजिये। मुस्कुरा कर मैंने उनसे की और उसके मन की कुंठा ख़त्म कर दी। अनुभव के इस पड़ाव तक आते आते, यह बात घनीभूत रूप से सिद्ध हो गयी कि अवचेतन मन हमारी चेतना के जाते ही वहीं थम जाता है पर जागने पर फिर वहीं से आरम्भ हो जाता है।

एक छोटी जांच बेहोशी के प्रभाव में होनी थी, बेहोशी से पहले मैं महिला रोगी की विस्तृत जानकारी लेने लगा। उस महिला रोगी के मन में जो भी प्रश्न थे उन सभी का उत्तर उसे दे दिया। बावजूद इसके वो कुछ तनाव में दिखी। पूछने पर पता चला कि विवाह से पहले वो एक अध्यापिका के पद पर थीं। अगर अभी भी पढ़ा रही होती तो ‘पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग’ में टेबल के उस पार बैठती। लेकिन अब अपने 6 वर्ष के बच्चे के साथ बाकी अभिवावकों के साथ बैठती हूं। मैंने उन्हें समझाया कि आपका बच्चा छोटा है। आपके घर में वृद्ध-जन भी हैं। इन दोनों को देखभाल की व बच्चे को संस्कार देने की जरुरत है। बच्चा बड़ा हो गया तो ना देखभाल की जरुरत होगी ना ही उस समय आपकी उतनी जरुरत होगी। बचपन में पड़ी अच्छे संस्कारों की नींव जीवन भर उसका साथ निभाएगी। अपनी पसंद की जॉब आप बाद में भी कर सकती हैं। प्रोसीजर पूरा हो गया। जब उन्हें वार्ड में भेजने लगे, तो वह बोली ‘सर आपकी बातों का मर्म मुझे समझ में आ गया है। आज पहली बार मुझे यह बात समझ में आयी है। अब मैं पूरे मन से गृहिणी के कार्य करुंगी। मन संतुष्ट था कि अब यह स्त्री कुंठा रहित होकर, पूरे मनोयोग से गृहकार्य करेगी।

चांदनी चौक के एक अधेड़ उम्र के नामी-गिरामी व्यापारी हर्निया सर्जरी के लिए हमारे यहां आये, काफी डरे हुए थे। कुछ देर बातचीत के बाद बातों ही बातों में मैने उन्हें सुला दिया, जब वापस होश आया तो वो रिकवरी कक्ष में थे। उन्हें बहुत देर तक विश्वास ही नहीं हुआ कि उनकी सर्जरी हो गयी है, बाद में पट्टी देखकर उनको विश्वास दिलाया गया। उन्होंने बताया कि लगभग दो साल से मैं तकलीफ में था पर लोगों ने इतना डरा रखा था कि डर के मारे नहीं आ रहा था। मैंने उन्हें समझाया कि सर्जरी की नयी व आधुनिक तकनीक, बेहतर संज्ञाहरण की दवाइयां व मॉनिटरिंग सिस्टम की वजह से ऐसा सम्भव हो पाया है। मैं इस बात से प्रसन्न था कि अब कम से कम यह मरीज कभी बेहोशी व सर्जरी से नहीं डरेगा।

एक संतुष्ट मरीज हमेशा एक आंतरिक सुख व प्रसन्नता की अमूल्य निधि प्रदान करता है। सुदूर पूर्वोत्तर राज्य से आया एक प्यारा-सरल बच्चा, अपने पुराने प्रोसीजर में हुई तकलीफ के कारण बहुत डरा हुआ था, उसने ‘प्रोसीजर रुम’ के अंदर जाने से साफ-साफ मना कर दिया। मुझे जबरदस्ती अंदर ले जाना या रोता हुआ बच्चा अंदर ले जाना उचित नहीं लगा। मैंने उस बच्चे से बहुत सी बातें की, फिर पता चला कि वो कैरम बोर्ड बहुत अच्छा खेलता है और अपने भाई व मामाजी को भी हरा चुका है। मैंने उससे कैरम की अलग अलग शॉट्स के बारे में पूछा, फिर मैंने उसे अपने बचपन में खेले कई और शॉट्स के बारे में बताया जो वह नहीं लगा पाता था, उन शॉट्स में उसका हाथ तंग था, जिसे देखकर मैंने उसे मैच के लिए चुनौती दी, और बोला कि मैं उसे मैच में हरा दूंगा। उसने कुछ शंका के साथ चुनौती स्वीकार कर ली, अंदर ले जाकर भी मैंने कैरम की ही बातें की और धीरे धीरे सुला दिया। जब बाद में वह सोकर उठा तो उसका पहला वाक्य था ‘कल का मैच पक्का है’ मैंने ‘हां’ कहा और ये भी कहा कि ‘हारने के बाद तुम रोना मत’। वहां से बाहर रिकवरी में भेजते समय मैंने उससे मन ही मन माफी मांगी।

काशी व प्रयागराज के मरीजों से मैं बिना प्रश्न पूछे नहीं रह पाता हूं। प्रयागराज के एक मरीज हड्डी से सम्बंधित सर्जरी कराने हमारे यहां आये। मैंने कुछ बातें की व प्रयागराज की पवित्र धरती के बारे में पूछा। उनको पिछली सर्जरी के बाद का डर बहुत था, मैंने बातचीत करके उनको आश्वासन दिया कि आपको कुछ पता नहीं चलेगा। बेहोश होने के बाद जब शल्य चिकित्सा हो गयी और वो इस मूर्छा से जगे तो बहुत खुश थे। ‘वाह, मुझे बिलकुल भी पता नहीं चला, ना ही दर्द हुआ’ उन्होंने कहा कि आप जब भी प्रयागराज आओ तो मुझे जरूर बताइएगा। वहां जो भी चाहिए वो दिला दूंगा। जब उन्होंने कई बार ऐसा कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा ठीक है ‘आप मुझे मोक्ष दिला दीजिये’, यह सुनते ही वह खिलखिलाकर हंस पड़े और कहने लगे कि ये मेरी सीमा से बाहर की बात है और मेरे बस में नहीं है। मैंने कहा इससे कम मुझे और कुछ नहीं चाहिए और धन्यवाद करके मुस्कुराते हुए वहां से चल दिया। उन भद्रजन ने मुझे सम्मान दिया और मैंने उनकी इच्छा पूरी की।

जब भी किसी नवयुवक या युवती को किसी भी नशे की आदत में देखता हूं, तो कोशिश करता हूं कम से कम एक बार उन्हें ऐसा करने से मना करुं। दशकों से ऐसा कर रहा हूं पर मुझे यह नहीं पता कि किसी ने भी कोइ बदलाव किया होगा कि नहीं। पर अभी कुछ ही दिन पहले दो मरीज ऐसे मिले, जो किसी कारण दोबारा सर्जरी के लिए आये थे और उनकी पत्नी ने बताया कि पिछली बार जब आप से मिले थे, तो आपने जैसा बोला था वैसा ही किया है। अब इन्होने धूम्रपान छोड़ दिया है। भले आज तक दो ही लोग मिले हो पर मेरा दो दशकों से ये बोलना सफल रहा।

आजकल के बच्चे इंटरनेट का प्रयोग बहुत करते हैं और अपने प्रश्न व उनके उत्तर उसी में खोजते हैं। इंटरनेट में अच्छी और बुरी दोनों ही प्रकार की चीज़ें देख पढ़ सकते हैं, यह हमारे ऊपर है कि क्या लेना है। अधिकतर नई व ऊर्जावान पीढ़ी को उथला ज्ञान ही पसंद आता है। वो उसी में प्रसन्न होकर रहते हैं।

ऐसे ही एक दिन एक युवा किसी सर्जरी के लिए हमारे यहां आया तो सर्जरी को लेकर इंटरनेट का ज्ञान-बघारने लगा – ये नयी तकनीक हैं। वहां पर फलां तरीके से होता हैं। बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर देने के बाद भी उसे संतुष्टि ना मिली तो मैंने शांति से बात की और धीरे से कहा, सर्जन हमेशा उस तकनीक में सहज़ रहता है जो वो वर्षों से अच्छे परिणाम के साथ कर रहा है। हमारे सर्जन लगभग दो दशकों से ज्यादा समय से यही कार्य कर रहे है और परिणाम भी अच्छे हैं। अब आप ही बताए कि उन्हें अपनी विधि और तरीके से यह कार्य करना चाहिए या फिर उस विधि से जिसमें उन्होंने कभी नहीं किया है या वो असहज हैं। उसे बात तुरंत ही समझ में आ गयी और फिर इधर-उधर का कोई प्रश्न पूछे बिना शांति से सर्जरी करवा ली। इतनी देर से बड़े प्यार से समझाने पर भी अगर ना समझे तो मेरी समझ में जो जैसे समझें उसे उसी भाषा में समझा देना चाहिए। समय भी बचता है और युवाओं को समझ भी जल्दी आ जाता है, ध्यान इस बात का रखना जरूरी है कि शब्द कड़वे ना हो।

एक अवयस्क बच्ची जिसका कि एक छोटा ऑपरेशन होना था पर वह इस बात से परेशान थी कि कहीं सर्जरी के बीच में ना उठ जाए, शायद इंटरनेट में पढ़ कर ज्यादा ही डर गयी थी। मैंने उसे विस्तार से बताया पर उसको पूरी संतुष्टि नहीं मिली, फिर मैंने उससे पूछा कि क्या आपके किसी घर वाले के साथ ऐसा हुआ? क्या किसी सखी के साथ ऐसा हुआ? या फिर किसी भी जानने वाले को कुछ पता चला? जब उसने ना कहा तो मैंने उसे समझाया कि इंटरनेट में सभी चीजें लिखी होती हैं गलत भी और सही भी। हमें गलत चीज पर ही पहले विश्वास होता है। फिर उसके साथ बात करने पर मैंने उसको विश्वास में लिया और कहा कि अगर आपके साथ ऐसा हो तो जरूर बताना। सर्जरी समाप्त हों जाने पर उसने कहा आपके इंजेक्शन देते-देते मुझे नींद आ गयी और कुछ भी पता नहीं चला, अब जाकर नींद खुली है, विश्वास नहीं हों रहा है कि सर्जरी हो गयी है। मैं प्रसन्न था कि उसके विश्वास को कायम रखकर उसके डर को समाप्त कर पाया हूं।

विभिन्न प्रकार के लोग और उनकी अलग अलग मानसिक परिस्थितियों व व्याधियों के कारण उनके मन में एक अनूठा प्रभाव पड़ता है, स्वयं के अनुभव व समाज के ताने बाने के कारण अंतर्मन में उपजती है विलक्षण मन: स्थिति। जो भी मन: स्थिति, अवचेतन मन (डर, भावनाओं के ज्वार भाटे, मानसिक अवसाद) में बेहोशी से पहले होता है, लगभग वैसी ही वापस चैतन्य होने के बाद होती है। प्रत्येक आयु वर्ग की चिंताएं व उत्सुकता भिन्न होती हैं। वृद्धजन की सोच अलग, वयस्क व बच्चों की अलग। सबको उन्ही की भाषा व शब्दों में उचित उत्तर मिल जाता है तो अंतर्मन में संतोष होना स्वाभाविक है। अगर पहले ही संतुष्ट कर दिया जाए तो मन शांत हो जाता है। निस्वार्थ सेवा की इस पवित्र विधा में अगर सर्वत्र मानव उत्थान की सोच के साथ कार्य किया जाये तो क्रियात्मक सृजनशीलता से जीवन को नयी दिशा प्राप्त होती है और इस सकल संसार में अनछुए आयाम छुए जा सकते हैं।

किसी भी क्षेत्र में यदि कार्य पूरे मनोयोग, निष्ठा, मानवीय भाव व प्रेम पूर्वक किया जाए तो इसका अर्थ है कि कर्ता की मति और उसके ‘कार्य की गति की दिशा, सत्य की ओर है, और ऐसे पावन लोगों का रथ स्वयं मोरपंखाधारी श्री कृष्ण चलाते हैं।

लेखक डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय, दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल में बेहोशी (एनेस्थिसिया) के डॉक्टर हैं। ऑपरेशन टेबल पर मरीजों को रिलैक्स करने में उन्हें महारत हासिल है।