हमारी परंपरा में वीरता केवल शारीरिक युद्धकौशल या रणक्षेत्र में लड़ना नहीं

हमारे उत्कृष्ट सांस्कृतिक भारतीय परंपरा के अनुसार वीरता की हमारी परिभाषा ज्यादा व्यापक है। यहां वीरता का अर्थ केवल शारीरिक युद्धकौशल या रणक्षेत्र में लड़ना नहीं है। वर्तमान संदर्भ में इतिहास के गौरवपूर्ण उपलब्धियों के माध्यम से वीरता को परिभाषित कर रहे हैं दिल्ली के प्रतिष्ठित गंगाराम अस्पताल के डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय। चार बांस […]

हमारे उत्कृष्ट सांस्कृतिक भारतीय परंपरा के अनुसार वीरता की हमारी परिभाषा ज्यादा व्यापक है। यहां वीरता का अर्थ केवल शारीरिक युद्धकौशल या रणक्षेत्र में लड़ना नहीं है। वर्तमान संदर्भ में इतिहास के गौरवपूर्ण उपलब्धियों के माध्यम से वीरता को परिभाषित कर रहे हैं दिल्ली के प्रतिष्ठित गंगाराम अस्पताल के डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,

ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।

चन्दबरदाई

 

कुछ दिन पहले ही पुराने मित्रों से मिलना हुआ। हॉस्टल की खट्टी-मीठी यादें भी बह निकली। हमने एक मित्र को (जो स्वयं ही चौहान है) बोला क़ि काम को बिना किसी चूक के ऐसे करो कि जैसे कालजयी कवि चंदरबरदाई ने कहा था ‘मत चुके चौहान’। इस मुलाकात में ये जादुई शब्द कुल तीन बार बोले गये। लेकिन मित्रों से मिलकर आने के बाद भी ये कुछ समय तक कानों में गूंजते रहे। जब इन शब्दों पर मनन किया तो मन रोमांचित हो उठा। ये समझ आया कि केवल शब्द नहीं हैं। इसमें प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, समर्पण और एक् सच्चे मित्र के मन में धधकता आक्रोश है। ये आभास कराता है कि जब कोई पूर्ण रूप से समर्पित होता है तो मृत्यु-भय से परे चला जाता है।

 

अमर कवि चन्दबरदाई ने जादुई शब्दों के ताने-बाने से बुनी ये कविता अपने प्राणप्रिय सम्राट व अभिन्न सखा के लिए रची थी। ऐसी असाधारण कविता, जिसमें फूल सी सुगंधित भावनाओं को विश्वास के धागे में पिरोकर पूर्ण समर्पण की माला बना दी हो। कविता की अनुभूति ऐसी, जैसे विभिन्न प्रकार के भाव-रस में डूबे शब्दों में, अन्तःकरण का संपूर्ण मर्म निचोड़ कर परोस दिया हो।

यह बलिदान की महागाथा है। शताब्दियां बीत जाने के बाद भी यह कविता हमारे रोम-रोम को ऊर्जावान बना कर निस्वार्थ देशभक्ति की ओर अग्रसर करती है।

यूं तो भारतवर्ष की ये पावन धरा एक से बढ़कर एक धुरंधर वीरों की साक्षी रही है, पर उनमें से भी कुछ वीर ऐसे थे जिनकी गौरवगाथा की चमक, समय भी धूमिल ना कर सका।

 

 

स्वर्ग सी सुन्दर और पवित्र धरती कश्मीर के राजा ललितादित्य, जिनकी वजह से अरब-तुर्क हमलावर कभी भारत की तरफ हमला करने का साहस नहीं कर पाए। इनका साम्राज्य लगभग कैस्पीयन सागर से सुन्दरबन तक था। उन्होंने तिब्बत से भी दोस्ती कर रखी थी। जिसे पता था कब बातचीत-कब कूटनीति और कब सेना का प्रयोग करना है। अपने शासन काल में उन्होंने बहुत सी नहरों, तालाबों का निर्माण कराया। प्रजा हित में बहुत से कार्य किये।

 

अदम्य साहस के प्रतिरूप पूर्व के साहसी अहोम वंश, जिसके पराक्रमी राजाओं ने मुग़लों को ब्रम्हपुत्र नदी के तट पर ही मार भगाया था। उनके सेनापति लाचित बरफुकान को कौन नहीं जानता, शत्रुओं के लिए साक्षात  महाकाल का स्वरुप। आज भी हमारी नेशनल कैडेट कोर के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को उन्हीं के नाम से स्वर्ण पदक दिया जाता है। वीरता की मिसाल प्रस्तुत करते बप्पा रावल हों या ट्रावनकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा हों, जिन्होंने हॉलैण्ड की शक्तिशाली व अजेय सेना को परास्त किया और उन्हें पहली बार हार का स्वाद चखाया था।

 

दुर्गम उत्तरी हिमालय क्षेत्र (उत्तराखंड) की वीरांगना रानी कर्णावती। जब मुग़लों के सेनापति नजाबत खान ने गढ़वाल पर कब्ज़ा करना चाहा तो पहले रानी ने दुर्गम पहाड़ी रास्ते में उन्हें चढ़ने दिया। जब वो घने जंगलों व ऊंचाई की ओर आ पहुंचे तो पीछे से रास्ता बंद कर दिया। अब ना उन्हें आगे के रास्ते का पता था ना ही पीछे ही जा सकते है। रानी ने उन पर हमला किया और साक्षात रण-चंडी की प्रत्यक्ष अनुभूति करा मुग़लों को बुरी तरह से हरा दिया। गढ़वाल पर जीत तो दूर की बात थी, आक्रांता जान बचाने के लिए गिड़गिड़ाने लगे। सन्धि करने पर मजबूर हुए। इस हमले का सबक सिखाने के लिए रानी ने उन सभी लोगों की नाक काट दी ताकि उन्हें ये सबक पूरे जीवन भर याद रहे। बाद में यही रानी ‘नाक काटी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।

 

महा-काली की तरह शत्रुओं पर टूट पड़ने वाली उल्लाल (कर्नाटक) की महारानी अबक्का, जिसने सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाली सेना के दांत खट्टे तो किये। एक स्त्री से बुरी तरह से हार जाना पुर्तगालियों के लिए अप्रत्याशित था। अद्भुत वीरता व साहस के कारण वो भय के पार निकल चुकी थीं। बाद में उनका नाम पड़ा ‘अभया रानी’।

 

प्रतापी मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनके नाम से ही दुश्मन कांप जाता था। उनकी कुशल रणनीति-कूटनीति एवं दूरदर्शिता आज भी आश्चर्य में डाल देती है और गहन विश्लेषण का विषय है। उन्होंने अपने अभूतपूर्व साहस, बुद्धिमानी व सूझ-बूझ से काल के कपाल पर नया कथानक लिखा।

 

न्याय और वीरता के लिए प्रसिद्ध महाकाल की भूमि व प्रसिद्ध पौराणिक नगरी ‘उज्जैन’। यहां के राजा विक्रमसेन के सेवाभाव, न्यायप्रियता और महा-पराक्रम का प्रकाश चहुं दिशाओं में ऐसा फैला कि उसकी तुलना सूर्य से होने लगी। उनका नाम ही विक्रमादित्य हो गया। उनके नाम से ही विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ।

अनगिनत वीर ऐसे भी हैं, जिनकी विलक्षण वीरता के किस्सों पर बहुत सी लोक-कथाओं व लोक-गीतों का जन्म हुआ। कुछ को देवतुल्य माना जाता है। वहीं कुछ वीर प्रत्यक्ष थे तो कुछ अप्रत्यक्ष, सभी ने भारत में वीरता के नये आयाम लिखे हैं।

भारतीय इतिहास के इन परमवीर लोगों में से ऐसे ही एक अद्वितीय सम्राट थे महाबली पृथ्वीराज चौहान। ऐसा माना जाता है कि महाराज दशरथ के बाद पृथ्वीराज चौहान ही वो प्रख्यात सम्राट थे, जो अचूक शब्द भेदी तीर चला सकते थे। किंवदन्ती है कि उन्हें शब्द भेदी बाण की शिक्षा स्वयं अश्वत्थामा ने दी थी। माना जाता है कि आज भी भारत में कुछ स्थानों पर यह कला जीवित है।

 

बलशाली सम्राट महाराज पृथ्वीराज चौहान ने अनगिनत युद्ध जीते। गोरी को 17 बार हराया। हर बार उसे जीवन दान दिया। वो युद्ध लड़ने में ही नहीं, बल्कि अभयदान देने में भी वीर हैं। असल में साहसी वह है जो शक्तिशाली,  बलशाली, क्षमतावान और सामर्थ्यवान होते हुए भी क्षमा करना जानता है। जैसा कि कहा जाता है ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो’। प्रताड़ना सहने व आंखों से ना देख सकने के बाद भी, शब्द भेदी बाण से गोरी को मृत्यु का स्वाद चखाया, ऐसा संभवतः महाराज पृथ्वीराज चौहान ही कर सकते थे और उन्होंने अपना कार्य अद्वितीय वीरतापूर्वक पूरा भी किया, जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है।

भारतीय परिपेक्ष्य में हम विभिन्न आयामों में वीरता की बात करते हैं। वीरता की परिभाषा में न्याय, धर्म, त्याग, सेवा, समर्पण, आत्म नियंत्रण, दया, दृढ़ता, साहस आदि आते हैं। जब कोई विकट से विकट परिस्थितियों में भी अडिग रहकर धर्म के मार्ग पर चलकर सत्य को नहीं छोड़ता है और कर्त्तव्य पालन करता है तब वो वीरता की श्रेणी में आता है। उत्कृष्ट जीवन मूल्य भी इसमें निहित होते हैं।

असभ्य, आतताई और क्रूर मानसिकता द्वारा धर्म को दबाने व अधर्म को स्थापित करने का कुचक्र जब-जब अपने तीव्र वेग में पहुंचा है, कोई ना कोई व्यक्तित्व किसी न किसी रूप में उठ खड़ा हुआ है। चाहें वह राजनेता हो या कसाई। कौटिल्य सा आचार्य हो या मेरठ के काली-पलटन मंदिर के पुजारी। महर्षि अरविंद जैसा संत हो या आदिवासी क्षेत्रों के भगवान बिरसा मुंडा। आश्चर्य है कि सभी अलग-अलग क्षेत्रों व भिन्न-भिन्न कार्य व्यवस्था से आए। लेकिन सभी का उद्देश्य एक ही था देश की रक्षा व धर्म की स्थापना। इन सभी दिव्यजनों ने अपने कार्य व स्वभाव के अनुरूप धर्म ध्वजा को पुर्नस्थापित करने का बिगुल जरूर बजाया।

ये वो लोग हैं जो परोपकार, उचित कार्य, समाजसेवा, धर्म व देश की रक्षा के लिए मृत्यु से नहीं डरते। प्रसन्नता से यम द्वार पर डटे रह कर उनकी प्रतीक्षा करते हैं। सहस्त्रों वर्ष पूर्व की बात हो या वर्तमान की। हमने जीवन के सभी क्षेत्रों में मानवता की पराकाष्ठा को छुआ है।

ऐसे ही तो हमने मृत्यु के परे का अहसास नहीं किया। ऐसे ही हमारे यहां की नारी यम-पाश से पति को नहीं छुड़ा लाती है। जिसका वर्तमान में उदाहरण है। अभी महीने से भी कम समय हुआ होगा जब चम्बल नदी (करोली, राजस्थान) के मगरमच्छ ने एक व्यक्ति को अपने मजबूत जबड़ों में दबोच कर पानी में खींच लिया। जान की परवाह किए बिना उसकी पत्नी विमल बाई ने हाथ आए लट्ठ से पानी में घुसकर उस खतरनाक मगरमच्छ को इतना मारा कि उसे अपनी ही जान बचाने के लिए भागना पड़ा। यह कोई साधारण बात नहीं है।

 

बुदेलखंड क्षेत्र में महिलाओं में खांगोरिया संस्कार करा कर उन्हें आभूषण पहनाया जाता है। उस आभूषण में तलवार (खंग) बनी होती है। इस संस्कार के बाद महिला में साक्षात् दुर्गा का वास मानते हैं। एक सशक्त महिला ही गुणी और वीर संतान को जन्म दे सकती है। सीधा सा अर्थ यह है कि हमारी स्त्रियां कम नहीं हैं। उन्हें दुर्गा बनकर दुर्गति को दूर करना पड़ेगा, जैसे मां दुर्गा के लिए हम विनम्रता पूर्वक प्रार्थना करते हैं:

कर में खप्पर खड्ग विराजै, जाको देख काल डर भाजै॥

सोहै अस्त्र और त्रिशूला, जाते उठत शत्रु हिय शूला॥

अकारण ही निर्दोष व निहत्थे जन मानस को प्रताड़ना देना या उनकी हत्या कर देना सिर्फ कायरता ही नहीं, राक्षसी कृत्य है। उनको यथोचित स्थान पर पहुंचाने की आवश्यकता हर काल में रहती है। हम शांति चाहते हैं पर शास्त्र और शस्त्र दोनों के पुजारी हैं। जब जैसी आवश्यकता होती है उसका वैसा प्रयोग करना जानते हैं।

युद्ध हो या बुद्ध हो, शस्त्र हो या शास्त्र हो।

आर हो या पार हो, किंचित नहीं भयभीत हो।।

अर्थ तो सीधा सा है कि विभिन्न प्रकार की विषम परिस्थितियों में धर्म व न्याय के द्वारा सरलता से प्रबंधन करना जानते हैं। विशाल सोच को पैदा करना और उस पर कार्य करना आसान तो नहीं है। पर किसी भी समाज में ऐसी धारणा सहस्त्रों वर्षों के परिष्कृत होने के बाद ही आती है। उचित प्रतिस्पर्धा तभी होती है जब दोनों ओर से समान स्तर के लोग हों। हम कभी किसी के प्रतिद्वंदी नहीं रहे। एक उचित प्रतिस्पर्धा के लिए समान स्तर का योग्य प्रतिद्वंदी तो होना ही चाहिए।

वीरता के अनेक आयाम हैं और उन सभी में हम भारतीयों ने मानव सीमा की पराकाष्ठा को छुआ है। जो लोगों के लिए असाध्य रहा है वो हम सहस्त्रों वर्ष पहले देख और लिख चुके हैं।

नैतिक-शिक्षा को हमारा सामान्य जन-मानस प्रतिदिन जीता है। परमपिता की कृपा से प्राप्त इस मानव जीवन में लगातार अपनी क्षमता का विकास कर अपने सामर्थ्य की पराकाष्ठा प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा प्रयास ना करना अपराध तुल्य ही है। जब तक आप स्वयं की पूर्ण क्षमता तक नहीं पहुंचेंगे, तब तक ना स्वयं की और ना ही समाज की कुछ सहायता कर पाएंगे। हम भारतीयों की प्रतिस्पर्धा केवल हमसे ही है, मानवता के श्रेष्ठ गुणों का उत्तरोत्तर विकास व स्वयं को निरंतर अधिक से अधिक अच्छा बनाने के लिए प्रयत्न करते रहना ही वीरता है। यही सच्चा पराक्रम है एवं यही सही मायने में भारतीयता है।

 

(लेखक डॉ. भुवन चंद्र पाण्डेय, दिल्ली के प्रसिद्ध गंगाराम अस्पताल में बेहोशी (एनेस्थिसिया) के डॉक्टर हैं। ऑपरेशन टेबल पर मरीजों को रिलैक्स करने में महारत हासिल है।)